षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’
श्लोक (२१)
होता है जो सुख प्राप्त रहा, परमात्म रूप वह नित्य पार्थ,
इन्द्रिय सूख से वह भिन्न रहा, वह विमल बुद्धि से रहा ग्राह्य ।
सांसारिक सुख की तुलना में, वह रहा विलक्षण अतुलनीय,
योगी करके साक्षात्कार, फिर रहा न प्रभु से विलगनीय ।
आनन्द अतीन्द्रिय को पाता, साधन कर साधक बुद्धियोग,
जिसमें स्थित योगी को फिर होता न कभी प्रभु से वियोग ।
वह साथ तत्व के जुड़ जाता, हृदयंगम करता धर्म भाव,
माध्यम न इन्द्रियाँ बन पाती, उसका होता अदभूत खिंचाव ।
होता समाधि में जब योगी, जग से उपरत हो जाता है,
व्यवहार काल में, लोकदृष्टि में संसारी कहलाता है ।
लेकिन जग में रहकर जग से, रहता उसका सम्बन्ध नहीं,
जो चित्त हुआ उपरत जग से, क्या जग में आकर रमा कहीं?
आत्मा को जिसने भेंट लिया , वह चित हुआ फिर आत्मरूप ,
सुख का मिल गया राज्य उसको,भव रहा न उसके लिए कूप ।
इन्द्रियाँ न जान पाती उसको,वह इन्द्रिय- सुख चाहेगा क्यों?
अम्बुज- रस को मधुकर पाया, वह कडुए फल खायेगा क्यों?
आनन्दमयी वह दशा रही, रसमय आनन्द अनन्त रहा,
योगी का दिव्य अतीन्द्रिय से, उस आत्म रूप में रमण रहा।
इसलिए न विचलित कभी हुआ, फिर आत्मनिष्ठ योगी का मन,
यह सुख पाया, इससे बढ़कर कुछ पाने, उसका रहा न मनम ।
श्लोक (२२)
यह पूर्ण अवस्था योगी की, जिसको समाधि है कहा गया,
यह प्राप्त हुई जिस योगी को, उसका सारा जीवन बदला ।
वह पुरुष नहीं विचलित होता, जग के दुख उसको दुख न रहे,
उन सभी दुःखों से मुक्त रहा, जग विषय संग से जो उपजे ।
हो जाता पूर्ण काम योगी जिस परम तत्त्व को प्राप्त हुआ,
जीवन में उसके लिए नहीं उससे बढ़कर कुछ लाभ हुआ ।
कितना भी हो दुख दायी दुख सह लेता उसे सहजता से,
विचलित होता वह नहीं कष्ट की भीषणता से या भय से ।
वह रहे आत्मसुख में निमग्न उसको न देह का भान रहे,
केवल सुख उसको याद रहे बाकी सारी बातें बिसरे ।
उसके न चित्त को डिगा सकें भारी दुख के सारे कारण,
वह नित्यानन्दी अटल रहे, कर सके न विचलित दुःख दारुण । क्रमशः…