‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक .. 56

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 56 वी कड़ी ..

              पञ्चमोऽध्यायः – ‘कर्म-सन्यास योग’

श्लोक (२५)

जिनके सब पाप विनष्ट हुए, जिनके सब संशय हुए दूर,

आलोक ज्ञान का जिन्हें मिला, हो गये वासना-भाव चूर,

सम्पूर्ण प्राणियों के हित-रत, जो मन को निश्चल शान्त रखें,

परमात्मा में स्थित होकर, वे पुरुष ब्रह्म को प्राप्त करें ।

 

आनन्द प्राणियों के सुख में, उनके हित में जिनको मिलता,

मन में जो जागा ब्रह्मभाव, हो अखिल भुवन में वह खिलता ।

आत्मा का ही उन्नयन नहीं, उन्नयन जगत का, जीवों का,

विकसित हो ज्ञान जहाँ करता वह विकसित ज्ञान तन्त्र करता जग का।

श्लोक (२६)

जो काम, क्रोध से रहित रहे, जो जीते हुए चित्तवाले,

परब्रह्म पुरुष परमात्मा का, साक्षात्कार करने वाले ।

ज्ञानी पुरुषों के लिए रहा, परमात्मा का दिशि दिशि दर्शन,

चहुँओर शान्त पर ब्रह्म रहा, उसका सर्वत्र रहा प्लावन ।

 

ज्ञानी के पथ की बाधाएँ हैं मल, विक्षेप, आवरण, दोष,

इनको जो दूर हटा लेता, हो जाता वह योगी अदोष ।

हो जाता उसको पूर्ण ज्ञान, परमात्म तत्व में वास करे,

ले भाव लोक संग्रह का वह, लीलावत अपने कर्म करे ।

श्लोक (२७,२८)

बाहर के विषयों को अर्जुन, बाहर निकाल जो देता है,

क्षण भंगुर विषयों के सुख में, जो नहीं तनिक रुचि लेता है।

करता है प्राणायाम, अपान-प्राण की गति जो सम करने,

भ्रूमध्य दृष्टि को साध साधना में, जो जुटे ध्यान करने ।

 

जिसने मन बुद्धि, इन्द्रियों को, कर लिया विजित, ऐसा साधक,

इच्छा भय क्रोध रहित होता, ऐसा वह प्रभु का आराधक ।

होता है मोक्ष परायण मुनि, हर एक दशा में मुक्त रहे,

वह परमात्मा को प्राप्त हुआ, कोई न व्यर्थ सन्देह करे ।

 

वैराग्य भावना तीव्र लिए विषयों से मुक्त हुआ योगी,

अष्टांग योग का साधन कर पा लेता मुझे ध्यान योगी ।

अनुभव करता है ब्रह्म भाव ऐसा साधक शरीरधारी,

ज्यों चिदाकाश में लीन हुई प्राणों की गति उसकी सारी ।

 

वह ब्रह्म रूप हो गया स्वयं, अपने स्वतन्त्र सब कर्म करे,

आनन्द सिन्धु में परमात्मा के, उसका मन तल्लीन रहे ।

हो जाता उनको आत्मज्ञान, वे मेरे भक्त रहे अर्जुन,

मुझमें विलीन होकर रहता है, हर साधक का अपना मन

 

हे पार्थ ज्ञान रहता मुनि को, उपभोक्ता मैं सब यज्ञों का

मैं ही उपभोक्ता जाने वह, जितने सारे तप उन सबका ।

मैं लोकों के स्वामी का भी, हूँ स्वामी इसका भान उसे,

हूँ मित्र सभी जीवों का मैं, मिलती है आत्मिक शान्ति उसे ।

 

परमात्मा लोकातीत रहा, पर बसता भक्तों के मन में,

वह करता सबका भला सदा, वह रहा सहायक जीवन में ।

प्रतिफल की आशा नहीं रखे, मिलता, जिनको विश्वास रहा,

तत्पर सहायता को रहता उसकी, जिसने भी उसे भजा ।

श्लोक (२९)

सब यज्ञ और तप के फल का, मैं रहा भोक्ता हे अर्जुन,

लोकों के ईश्वर का ईश्वर, मैं रहा जानता भक्त सुजन ।

मैं प्राणिमात्र का सुहृद, दयालु रहा प्रेमी समान सबका,

हर भक्त तत्व मेरा जाने, वह मग्न शान्ति-सुख में रहता ।

 卐 । इति-कर्म सन्यास योगो नाम पञ्चमोध्यायः ।卐