‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक ..23

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है

उन्ही द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की दूसरी कड़ी 18 वी कड़ी  ..

द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

             ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (३९)

हे अर्जुन यह था ज्ञान योग, जो मैंने तुमको समझाया,

अब बुद्धियोग समझाता हूँ, बन्धन न कर्म बनने पाया ।

बाधक न कर्म होने पाता, जिस बुद्धि योग के धारण से,

ज्यों बज्रकवच जिसने पहिना, क्या शस्त्र उसे घायल करते ।

 

शस्त्रों की वृष्टि सहन करता, वह वीर विजय श्री वरता है,

जो बुद्धि योग को प्राप्त हुआ, वह पुरुष विमुक्त विचरता है।

इस बुद्धियोग से युक्त हुआ, तू कर्म बन्ध को त्यागेगा,

अन्तर के अन्तर्द्वन्द्वों पर-तू पार सहज ही पायेगा।

 

हो सावधान यह सुनने को, कैसे समभाव सधा करता,

किस तरह हुआ इसका पालन, इस समता का क्या फल मिलता?

हो ज्ञान योग या कर्मयोग, समभाव चाहिए दोनों में,

देहरी-दीपक का न्याय बना, समभाव चाहिए दोनों में ।
श्लोक (४०,४१)

इस बुद्धि योग के पालन से, सुख नहीं लोक का घटता है,

होता है मोक्ष सुरक्षित भी, आगामी जन्म सुधरता है।

जो रहे अधूरे अनुष्ठान, होता न बीज का नाश कभी,

उल्टा फल दोष न लगता है, यह हर लेता भय दोष सभी।

 

इसको ही कर्मयोग कहते, कहते हैं इसे समत्वयोग,

तदर्थ, मदर्थ, मत्कर्म रहा जो रहा मूलतः बुद्धियोग ।

यह धर्मरुप साधन इसका, रक्षित रखता है हर भय से,

आंशिक साधन भी बहुत रहा, होता न प्रभावित यह क्षय से ।

 

है जन्म-मरण के कष्ट कठिन-पर उनको नहीं सताते हैं,

जो मन में बिना कामना के, अपने कर्तव्य निभाते हैं ।

वैसे ही जैसे मान्त्रिक को लग, पाती नहीं भूत-बाधा,

भय नहीं व्यापता है उसको, जिसने यह कर्मयोग साधा ।

 

होती सुबुद्धि जिसकी अर्जुन, वह पुण्यात्मा होता महान,

हो जाते उसके कष्ट दूर, हट जाते भय बाधा तमाम ।

वह बुद्धि नितान्त सूक्ष्म होती, गुण नहीं उसे दोलित करते,

उठते न प्रश्न क्या पाप-पुण्य, संचालित उसे कर्म करते ।

 

दीपक की ज्योति रहे छोटी, लेकिन प्रकाश भरपूर रहे,

सद्बुद्धि बहुत छोटी होती, पर उसे न न्यून कोई समझे ।

ज्ञानीजन पाना चाहें पर, सद्बुद्धि रही दुर्लभ अर्जुन,

जैसे पत्थर तो प्राप्त बहुत, पर पारसहै दुर्लभ अर्जुन ।

 

हो दैव योग तब मिल पाये, अमरित की चाही बूँद एक,

सागर तक नहीं पहुँचती सब, बहती हैं जो नदिया अनेक ।

हो ईश प्राप्ति परिणति जिसकी, ऐसी सुबुद्धि दुर्लभ नितान्त,

गंगा सागर में मिलकर ज्यों, हो जाती है सागर प्रशान्त ।

 

है केवल ऐसी बुद्धि एक, बाकी कुबुद्धियाँ हैं सारी,

जिनमें उपजा करते विकार, रमते हैं जिनमें अविचारी ।

मिलता उनको संसार, स्वर्ग मिलता है उनको नरक वास,

लेकिन न आत्म सुख पाते वे, पाते अभाव दुख कष्ट त्रास ।

 

रहता है जहाँ सकाम भाव, उद्देश्य विविध होते उसके,

हो कर्म भले ही एक मगर, जितने जन मन उतने उसके ।

प्रिय एक वस्तु आंशिक इसको, उसको हो सकती अप्रिय वही,

बँट व्यक्ति और घटनाओं में, होकर असंख्य यह बुद्धि रही । श्लोक (४२) क्रमशः…