मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की दूसरी कड़ी 19 वी कड़ी ..
द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’
‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’
श्लोक (२२)
ज्यों जीर्ण वस्त्र को त्याग मनुज, नूतन परिधान ग्रहण करता,
तज-जीर्ण देह जीवात्मा भी, नूतन शरीर धारण करता ।
कितने शरीर जीवात्मा ये, अब तक धारण कर चुका पार्थ,
करता ही जायेगा धारण, जब तक न जान पाये यथार्थ |
होते शरीर के तीन भेद-स्थूल, सूक्ष्म, कारण शरीर,
जीवात्मा जब छोड़े इनको, बच रह जाता कारण शरीर ।
गुणमयी प्रकृति वह ही, स्वभाव संकल्पभाव से सूक्ष्म बने,
अनुरुप उसी के जीवात्मा, धारण फिर नूतन देह करे।
यों आत्मा अक्रिय अचल होती, करती वह गमनागमन नहीं,
केवल प्रतीति होती उसकी, वह कल्पित केवल रही कड़ी।
घट के भीतर आकाश भरा, ज्यों घट के साथ गमन करता,
जीवात्मा भी है घटाकाश, जो रहा सूक्ष्म के संग चलता ।
श्लोक (२३, २४)*
शस्त्रादि न इसको छेद सकें, इसको न अग्नि भी जला सके,
इसको न गला पाये पानी, इसको न हवा भी सुखा सके।
यह कट जाये या जल जाये, है वस्तु नहीं कोई ऐसी,
यह गल जाये या सूख सके, है वस्तु नहीं कोई ऐसी ।
यह तो है नित्य सर्वव्यापी, यह अचल अखण्ड सर्वगत है,
यह स्वयं प्रकाशित, स्वयं सिद्ध, यह निर्विकार, यह शाश्वत है।
श्लोक (२५)
यह नहीं किसी भी इन्द्रिय के, द्वारा हो सके व्यक्त अर्जुन,
यह है अचिन्त्य यह अविकारी, इससे भाषित सारा जीवन ।
इस तरह जानकर आत्मा को, क्या होगा उचित शोक करना,
हे अर्जुन व्यर्थ शोक तेरा, उठ तुझे कमर अपनी कसना ।
श्लोक (२६, २७)
लेकिन यदि तू इस आत्मा को, समझे यह जन्मे और मरे,
तो भी न उचित होगा अर्जुन, तू इसके कारण शोक करे ।
कारण है अटल मृत्यु उसकी, जो धरा-धाम पर आया है,
अथवा जिसका हो गया मरण, वह जन्म नया फिर पाया है।
यह विषय परम अनिवार्य हुआ, हो सके न इसमें परिवर्तन,
निरुपाय दशा में पड़कर यों, क्या उचित शोक करना अर्जुन ?
ज्यों गंगा के जल की धारा, होने पाती विच्छिन्न नहीं,
उद्गम से चली विसर्जन तक, वह सतत बही वह एक रही।
सागर में जाकर मिलने पर-सागर में हो जाती विलीन,
रह सभी दशाओं में वह सम, जो प्राणिमात्र की रहीं तीन ।
समझो अटूट रहता प्रवाह, फिर किससे लिये शोक करना ?
यह रहा प्रकृति का नियम पार्थ, उगना बढ़ चलना फिर ढलना ।
यह भी समझो यह प्राणी – जगत इन नियमों के अधीन रहा ,
है चक्र एक गमनागम का, जो सतत चला निर्बन्ध चला।
लेता जो जन्म मरण पाता, आता-जाता, सन्देह नहीं,
पानी की रहट समान चक्र, चलता रहता, यह थमें नहीं ।
जिस तरह सूर्य उदयास्त चले, यह जन्म-मरण चलता रहता,
है आदि जहाँ है अन्त वहीं, ज्ञानी क्या शोक कभी करता ?
तुम भले अन्त होने वाली-समझो आत्मा को वस्तु एक,
लेकिन न रहा कोई कारण हो मुख पर दुख की कहीं रेख! श्लोक (२८) क्रमशः ….