‘गीता ज्ञान प्रभा’ धारावाहिक .. 16

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ 

ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 1६ वी कड़ी ..

द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

              ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (११)

यह कैसा आश्चर्य युद्ध के समय, पार्थ मैं देख रहा,

राग कौन सा छेड़ दिया यह तुमने, क्या न विवेक रहा ?

बहुत बड़े ज्ञानी बनते हो, पर अज्ञान नहीं छूटा,

उल्टा ज्ञान सिखाने मुझको, लाए हो अपना छूंछा ।

 

ज्यों जन्मान्ध व्यक्ति, पागल हो जाने पर भागा फिरता,

ऐसा ज्ञान तुम्हारा, जिसका तुक या तान नहीं मिलता ।

तुमको अपने बारे में ही, थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं,

दुखी कौरवों के बाबत, होने में फिर तुक कहाँ रही?

 

तुम्हीं बताओ, क्या अनादि रचना यह जग की गलत रही?

या त्रिभुवन के पालन कर्ता, बन आए अर्जुन तुम ही?

सृष्टि इसे संचालित बढ़ाने वाले, क्या तुम ईश्वर हो?

सर्वेश्वर्य शक्ति सम्पन्न, पार्थ क्या तुम जगदीश्वर हो ?

 

क्या यह गलत कि, सृजन सृष्टि का करने वाला और रहा?

प्राणिमात्र के जन्म मरण का, कर्त्ता धरता और रहा?

क्या तुमने ही मृत्यु रची है, या तुमने ही जन्म रचा?

तुम मारोगे जगत मरेगा, छोड़ोगे तो जगत बचा?

 

भ्रममूलक इस अहंकार से, ग्रसित तुम्हारा सोच रहा,

तुम न कौरवों को मारोगे, तो क्या कुल यह अमर रहा?

चिरजीवी हो जायेंगे क्या, कौरव तुमसे पाकर जीवन?

एक मारने वाले तुम बस, बाकी मरने वाले अर्जुन?

 

तुमको हो सकता है यह भ्रम, किन्तु न ऐसा होने दो,

निश्चित है पहिले से ही जो, उसे अबाधित होने दो।

नियम सृष्टि के अपने हैं, वे सिद्ध अनादि रहे अर्जुन,

उनसे होता उत्पन्न जगत, उनसे ही पाता जगत मरण।

 

तुम नहीं समझ पाते यह क्यों, क्या उचित तुम्हारा दुख करना?

जो बातें नहीं विचारणीय, उन पर क्या उचित विचार करना?

उल्टे तुम बता रहे मुझको, भ्रम पोषित अपना वृहत ज्ञान,

क्या नहीं सृष्टि के नियमों का, अर्जुन तुमको है तनिक भान?

 

देखो जो पुरुष विचारशील, वह भलीभाँति यह जान रहा,

है भ्रान्ति जन्म है भ्रान्ति मृत्यु, जग जन्म-मरण का खेल रहा।

वह शोक नहीं करता इस पर, जो आया है सो जायेगा,

संबंध अनित्य रहे जग के, हर पण्डित यही बतायेगा ।

 

सतवस्तु जगत में एक ब्रह्म, जो जीवों की आत्मा बनता,

होता है जिसका नाश नहीं, मरता तो बस शरीर मरता ।

संयोग देह से आत्मा का अनिवार्य किन्तु कल्पित अर्जुन,

इसलिए न करते शोक कभी, तन के वियोग से पण्डित जन ।

श्लोक (१२)

अर्जुन तुम, मैं या ये नृपगण, जो यहाँ सभी एकत्रित हैं,

सब सदा रहेंगे ऐसे ही, या मर जायेंगे नश्वर हैं ।

यदि भ्रम को दूर हटा दें हम, तो सत्य प्रगट हो जायेगा,

ये दोनों बातें हैं असत्य, यह स्वयं दृष्टि में आयेगा ।

 

उतपत्ति दीखती जो हमको, हमको विनाश जो दीख रहा,

यह होता माया के कारण, माया का ही भ्रमजाल रहा ।

आत्मा तो सबका एक रहा, आत्मा है नित, है अविनाशी,

जिस तरह हवा के चलने से, जल पर तरंग बन बन जाती ।

 

उसमें भी कौन कहाँ जन्मा, यह क्या बतलाया जा सकता?

आकार, प्रकार विविधता का क्या यह समझाया जा सकता?

जब बन्द हवा का बहना हो, पानी स्वभाव वत शान्त रहे,

तब कौन वस्तु जो नष्ट हुई, यह बोध मनस्तल पर उतरे ।

 

अर्जुन मत रहना इस भ्रम में मैं किसी काल में नहीं रहा,

तुम किसी काल में नहीं रहे, जो नहीं रहा कोई न रहा ।

आगामी कालों में अथवा जो नहीं रहेगा सत्य नहीं,

सब कालों में हम रहे रहेंगे आत्मा का मरण नहीं ।

श्लोक (१३)

यह भी देखो अर्जुन शरीर अपना, यह सदा एक रहता,

लेकिन बढ़ती है आयु, आयु के साथ बदलता यह रहता ।

बचपन आता, फिर तरुणाई, फिर सहज बुढ़ापा आ जाता,

परिवर्तन तो होते रहते, यह नष्ट नहीं होने पाता ।

 

ऐसे ही आत्मा के ऊपर, उपजा करते हैं जो शरीर,

वे हैं अनन्त, कालान्तर में बनते मिटते रहते शरीर ।

यह सत्य जानता धीर पुरुष, वह नहीं मोह में पड़ता है,

वह विगत शोक रहता अर्जुन, उसको दुख नहीं पकड़ता है । श्लोक (१४) क्रमशः….