नवमो ऽध्यायः – ‘राज गुहययोग’
अध्याय नौ – ‘राजविद्या राजमुख्य योग’ सबसे बड़ा ज्ञान/रहस्य, ‘भगवान अपनी सष्टि से बड़ा है’
श्लोक (२२)
रख श्रद्धा, भक्ति भाव मुझमें, मेरे स्वरुप का कर चिंतन,
निज भजते रहते हैं मुझको, तल्लीन किए जो मुझमें मन ।
हे अर्जुन ऐसे भक्तों को मिलता है मेरा संरक्षण,
नित उनके योग क्षेम का मैं, करता रहता हूँ स्वयं वहन ।
हे पार्थ, चित्त अपना अर्पित, हर भाँति मुझे जो करता है,
अपने प्राणों में केवल जो मुझको ही धारण करता है ।
रह एक निष्ठ अन्तस से जो, करता सेवा करता चिन्तन,
मैं पूरी करता हर इच्छा, करता हूँ उसका भार ग्रहण ।
मन में विश्वास अटल लेकर जो भार सौंप देता मुझको,
वह भार वहन करना होता, हे पाण्डव सुत बढ़कर मुझको ।
मैं प्राप्त कराता जो अप्राप्त, जो प्राप्त सुरक्षित रखता हूँ,
हर भाँति भक्त के योगक्षेम की, मैं ही रक्षा करता हूँ।
लौकिक या रहे पार लौकिक, किन चीजों में हित निहित रहा,
भगवान पूर्ति करते उसकी जिसका चित्त प्रभु में मग्न रहा ।
हर तरह भक्त का योगक्षेम, भगवान स्वयं साधा करते,
करते आनन्द प्रदान अमित, उसके भव की बाधा हरते
श्लोक (२३)
अन्यान्य देवताओं की जो कर रहे उपासना यज्ञों से,
अभिलाषा फल की लिए हुए, जो भक्ति भाव से श्रद्धा से ।
कर रहे उपासना मेरी ही, कौन्तेय न वह विधि सम्मत है,
फल मिलता है उनको, लेकिन वह नहीं पूर्णतः सार्थक है।
जो श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं की पूजा करते हैं,
कौन्तेय भक्त वे अन्य नहीं मेरी ही पूजा करते हैं।
अन्तर केवल इतना रहता, विधिपूर्वक रही न यह पूजा,
मेरे प्रकाश से भासित जो, उसको वे समझ रहे दूजा ।
कितने न सम्प्रदाय अर्जुन, कितने न देव आराध्य रहे,
वे अग्नि इन्द्र या सूर्यचन्द्र, जो इनके द्वारा गए भजे ।
मुझमें हैं सबके गुण सारे, धारण कर सबको व्याप रहा,
इनकी पूजा मेरी पूजा, पर नहीं विषय अनुकूल रहा ।
शाखायें हो या फल पत्ते, सब एक बीज की उपज रहे,
यदि मूल नहीं सींचा जाता, तो क्या वृक्षों में फूल लगे?
फूलों का या पत्तों का सिंचन, क्या गुणकारी होता है?
वह रहा अभाव ज्ञान का ही, जो जल के बिन्दु पिरोता है।
दस रहीं इन्द्रियाँ पर इनका आधार एक तन ही तो है,
विषयों के क्षेत्र अलग लेकिन धारक उनका मन ही तो है।
क्या फूलों की महक आंख से लेना उचित कहा जाये?
क्या ज्ञान दृष्टि से हीन कर्म को, सार्थक साधक कर पायें?
श्लोक (२४)
सच तो यह है, मैं ही वह हूँ, जो परमेश्वर जो है अद्वय,
भोक्ता इन सारे यज्ञों का, अविनाशी है, जो है अव्यय ।
मेरा यह दिव्य स्वरुप स्वरुप इसे, वे नहीं तत्व से जान सके,
इसलिए न मुक्ति मिली उनको, वे पुनर्जन्म को प्राप्त रहे ।
इन सारे यज्ञोपचारों का, केवल मैं ही भोक्ता अर्जुन,
मैं सब यज्ञों का आदि रहा, मैं अंत यज्ञ का रहा यजन ।
दुर्बुद्धि छोड़कर पर मुझको, इन्द्रादिक देवों को भजते,
तर्पण जल से जल का करते, मेरा मुझको अर्पण करते ।
रहता है मन का भाव अलग, इस कारण फलित नहीं होता,
मिलता जो वह वह होता है, वह नहीं कभी भी मैं होता ।
जिसकी मूरत मन में गढ़ते, उसके ही दर्शन पाते हैं,
छाया-माया में खोये वे, मुझसे वंचित रह जाते हैं ।
मेरे स्वरुप की होती है, उनको कोई पहिचान नहीं,
होते जो उनके अनुष्ठान कोई न रहे निष्काम कहीं ।
इसलिए गिरा करते नीचे, क्रम नहीं गतागत का थमता,
जब तक न ज्ञान का उदय हुआ, जब तक अज्ञान नहीं हटता । क्रमशः….