‘गीता ज्ञान प्रभा’ धारावाहिक .. 8

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभाधारावाहिक की आठवी कड़ी ..

अध्याय- एक

                 -:  अर्जुन विषाद योग :-

श्लोक (२८,२९,३०)

अर्जुन उवाच :-

फँसा मोह में दुखी हृदय से, बोला अर्जुन माधव से,

हे केशव मन विगलित मेरा, सारा सेना-दल लख के !

सबके सब जो दीख रहे हैं, रहे गोत्र के लोग यहाँ,

युद्ध हेतु तैयार खड़े हैं, जुड़ आये जो सभी यहाँ ।

 

यह तो ठीक कि युद्ध चाहते हैं, ये सब लेकिन केशव,

क्या हो सकता उचित, युद्ध करना इनसे मेरा केशव ?

सुध बुध खो जाती है मेरी, जब विचार मन में आता,

मन अशान्त है बुद्धि अथिर है, मैं न सोचने कुछ पाता ।

 

इधर देखिए काँप रहा, मेरा शरीर मुख सूख रहा,

सारे गात्र शिथिल हो आए, तन पर यह रोमांच जगा ।

व्यथित चित्त मेरा हो आया, ढीले हाथ हुए मेरे,

खिसक रहा गांडीव हाथ से, मन को भ्रम इतना घेरे ।

 

खड़ा रह सकूं इतना भी सामर्थ भी बाकी मुझमें

लगता है ज्यों त्वचा जल रही,चैन नहीं बाकी मन में ।

अन्त:करण कठोर बज्र सम रहा किन्तु वह भी भगवन,

मोह-पाश में पड़ स्वजनों के इतना हो आया उन्मन ।

संजय उवाच :-

जिस अर्जुन ने था परास्त कर दिया स्वयं भूतेश्वर को,

कर संहार निवात-कवच का मुक्त किया जिसने जग को ।

हर प्रतिकूल समय में जिसने नहीं कभी खोया साहस,

होता है आश्चर्य हुआ वह मोहाकुल इतना परवश ।

 

लगी न पल भर देरी के व्यामोहित हो गया वीर अर्जुन,

युद्ध क्षेत्र में स्वजनों के हित लगा सोचने उसका मन ।

कर देता है छेद भ्रमर लेकिन लकड़ी जो होती कठोर,

कमल-पाखुरी पर लेकिन चल पाता उसका नहीं जोर ।

 

आता कभी न उसके मन में, काटे वह अपने बन्धन,

प्राण चले जाते पर करने पाता मुक्त न अपना मन ।

रहे मोह के तन्तु मृदुल पर कठिन मुक्ति उससे पाना,

उसमें फँसे कि फिर धँसते ही गये न हुआ उबर पाना ।

 

संजय बोले हे राजन् यह मोह रहा ईश्वर की माया,

ब्रम्हा जी भी इससे हारे, इसने अर्जुन को भरमाया ।

इष्ट मित्र अरु सुहृद सनेही देखें अर्जुन ने रण में,

चूर-चूर हो गया युद्ध का जो अभिमान रहा मन में ।

 

कैसे करुणा भाव हृदय में उसके यों सहसा जागा,

रहा समझ के परे न कोई समझ सके प्रभु की माया ।

फिर उसने भगवान कृष्ण से आगे अपनी बात कही,

भगवान यहाँ ठहरने की अब कोई इच्छा नहीं रही ।

श्लोक (३१)

इन सबको मारुँ विचार आते ही मन व्याकुल होता,

मुंह में कोई शब्द न आता, मैं अपना धीरज खोता ।

हे केशव विधि वाम हुआ है, समय मुझे विपरीत दिखे,

लक्षण अच्छे नहीं दीखते, युद्ध टालिये अभी इसे । क्रमशः ….