‘गीता ज्ञान प्रभा’ धारावाहिक .. 4

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की चौथी कड़ी ..

अध्याय- एक

                 -:  अर्जुन विषाद योग :-

श्लोक..(११)

भीम रहा उद्दण्ड क्रोधी उसका कोई विश्वास नहीं,

सब कुछ है चढ़-बढ़कर लेकिन दीख रही कुछ मुझे कमी ।

मौन रहा कुछ क्षण दुर्योधन इधर उधर चिन्तित डोला,

सेनापतियों को सम्बोधित कर फिर उनसे यों बोला ।

 

नहीं विश्व में जिन सा योद्धा, श्रेष्ठ क्षत्रियों में प्रधान,

इच्छा मृत्यु मिला वर जिनको, भीष्म पितामह रहे महान ।

आधिपत्य में उनके सेना रही नियन्त्रित पर फिर भी,

व्यूह रचित पाण्डव सेना जैसे हो लें सुगठित हम भी ।

 

करो व्यवस्थित अपनी-अपनी सेना के दस्तों को सब,

जो अक्षौहिणियाँ जिसकी उनका भार सम्हालों आगे बढ़ ।

महारथी अपनी अक्षौहिणी सेना के आगे आएँ,

और पितामह की आज्ञा पर ध्यान सभी अपना लाएँ ।

 

फिर आचार्य द्रोण के प्रति दुर्योधन यों बोला मुड़कर,

“ध्यान आपका हो गुरुवर अब सारी सेना के ऊपर ।

मेरी तरह आप भी दें पूरा सम्मान पितामह को,

सारी शक्ति उन्हीं पर निर्भर रही समझना है हमको’ ।

 

अपने-अपने मोर्चों पर सब सजग रहें, चैतन्य रहें,

सभी तरफ से भीष्म पितामह की रक्षा का ध्यान रखें ।

अपनी रक्षा करने में वे सक्षम हैं यह बात सही,

किन्तु प्रतिज्ञा उनकी युद्ध न करने की है बीच अड़ी ।

श्लोक.. (१२)

बहुत हुआ आनन्द पितामह को ऐसी बातें सुनकर,

सिंह गर्जना प्रबल हुई उनकी कँप गया वृहत अम्बर ।

समा न पाई प्रतिध्वनि नभ में, सेनाओं में गूँज गई

दिव्य शंख फूँका वीरोचित प्रतिध्वनि में ध्वनि मिली नई ।

 

एक साथ मिलकर ध्वनियों ने अपना घोर रुप धारा,

मानो त्रिभुवन बधिर हुआ आकाश फटा भू पर सारा ।

लगा उछलने सागर भी ज्यों जड़-जंगम सब घबराये,

अगम गुफाओं में पर्वत की प्रतिध्वनि गूँजे, भर जाये ।

 

श्लोक..(१३)

बजीं भेरियाँ दोनों सेनाओं की, तुमुल घोष जागा,

कर्कश रण वाद्यों का शोर भयंकर गूँजा भय छाया ।

धीरजवन्तों का धीरज टूटा, ऐसे भीषण रव में,

मानों प्रलय हुआ आने को, शोर उठा ऐसा भव में ।

 

फूँके गये शंख, मृदंग, नगाड़े, ढोल गये पीटे,,

बजीं नोबतें, फुकीं तुरहियाँ शोर घोर होता दीखे ।

गरजे वीर ताल ठोंकने लगे मल्ल भुजदण्डों से,

उठे कूक ललकार युद्ध के लिए विभिन्न प्रखण्डों से ।

 

बेकाबू हो उठा हस्तिदल, मत्त हुए, चिंघाड़ उठे,

जो कमजोर हृदय के थे, हो गए मृतक वत खड़े-खड़े |

जिनमें थोड़ा साहस था बज उठे दाँत कट कट उनके,

योद्धाओं के भी शरीर दीखे भय से थर-थर कपते ।

 

रणवाद्यों की ध्वनि सुनकर व्याकुल हो गए विधाता भी,

इन्द्रदेव कह उठे -दशा यह क्यों हो गई प्रलय जैसी ?

उधर स्वर्ग में रण-कोलाहल सुनकर क्या बीती गुनिए,

इधर हुआ पाण्डव सेना में क्या राजन उसको सुनिए ।  क्रमशः….