‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 175 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 175 वी कड़ी ….

पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’

क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,

श्लोक  (1)

तेजी से घूम रहा लड्डू, लगता है जैसे थमा हुआ,

लगती है अग्नि चक्र जैसी, यदि हम मशाल दें, गोल घुमा।

तेजी से बहता जल प्रवाह, पीछे से जल आकर मिलता,

जल थमा हुआ सा लगता है, यद्यपि वह थमा नहीं रहता ।

 

गिरते पत्ते गिरती शाखा सौ नई टहनियाँ आ जाती

उत्थान पतन मन्वन्तर के, इसकी गाथाएँ रच जाती ।

यों सूर्यवंश यों चंद्रवंश यों वंशवृद्धि का क्रम चलता

भव तरु के पतते रहें पात भव तरु नित नूतन हो रहता ।

 

शाखा जो बीचों बीच रही, उस पर ऊगा है मर्त्य लोक,

ऊपर शाखा पर देवलोक, निचली पर है पाताल लोक ।

कितनी ही शाखा में अंकुर, नित ऊग रहे, नित मिटते हैं,

भव वृक्ष विलक्षण इसकी गति, ज्ञानी जन इसे समझते है।

 

इसको अनित्य वे बतलाये, ऊपर की ओर जड़ें इसकी,

नीचे को बढ़ती शाखायें, पत्तो से भरी रहें, इसकी ।

पत्ते पत्ते पर ऋचा लिखी, वेदों को जो पढ़ने पाता,

पूरा भव-वृक्ष पढ़ा जिसने, वेदों का वह सच्चा ज्ञाता ।

 

जीवित शरीर यह जगत रहा, संयुक्त रहा यह ईश्वर से,

जग के तरु की जड़ ऊपर है, विस्तार पा रहा वह जिससे ।

संसार रुप में फैल रही, शाखायें नीचे को बढ़तीं,

इसकी मजबूत जड़ें केवल, ज्ञानसि के द्वारा ही कटतीं ।

श्री भगवानुवाच :-

भगवान कृष्ण फिर यों बोले, है एक बड़ा तरु पीपल का,

जिसका ऊपर है मूल और, वह तने सहित नीचे बढ़ता ।

वैदिक मन्त्रों के पातों का, यह वृक्ष, इसे जिसने जाना,

तात्पर्य वेद का समझ सका, जिसने इस तरु को पहिचाना।

 

परमेश्वर जिसका आदि मूल, ब्रह्मा जिसकी शाखा प्रधान,

संसार रुप इस पीपल को, अविनाशी कहते ज्ञानवान ।

इसके पातों पर वेद लिखे, पढ़ लिया वृक्ष जिसने सारा,

जो मूल तत्व को समझ सका, वह रहा वेद जानन हारा ।

श्लोक  (२)

माया के गुण का जल सिंचता, जग वृक्ष रहे नित हरा-भरा,

ऊपर-नीचे इस तरुवर की, शाखाओं का विस्तार रहा ।

इन्द्रिय-विषयों के पात सघन जड़ नीचे भी इसकी जाए,

जो मनुज योनि में जीवों को, कर्मानुसार कसती जाए ।

 

गुण माया के करते पोषण, शाखायें होती रहें सबल

ऊपर-नीचे विस्तार रहा, शाखाओं पर आते अंकुर ।

अंकुर सब विषय-वासना के, शाखायें विविध योनियों की,

देवों, मनुजों अरु दनुजों के, शाखायें लोक लाक रचतीं ।

 

शाखा जिस पर है मनुज लोक, इसकी जड़ जाती है नीचे,

कर्मों से जीवन बाँध रहे, टहनी पर जो अंकुर पीके ।

ऊपर नीचे जग घेर रखे, ये जड़ें वासना की बढ़कर,

पत्तों से भरी टहनियों के, बहुजीव बसें इसके ऊपर ।

 

जड़ ब्रह्म लोक से शुरु हुई, पाताल लोक तक जाती हैं,

जो रहा मध्य में मर्त्यलोक, उसको विस्तार दिलाती हैं।

हैं सप्त लोक जिसके ऊपर, हैं सप्त लोक जिसके नीचे,

जैसा कर्मों का फल रहता, वे लोक मनुज को ही मिलते ।

 

अधिकार कर्म का, मनुज अकेला, मर्त्यलोक पर पाता है,

बाकी लोकों में, भोग भोगने, जीव वहाँ पर जाता है।

उठकर वह ब्रह्मलोक पाता, गिरकर पाताल तलक जाये,

गति को सुधार लेता जिस क्षण, वह मुक्त परम पद पा जाये। क्रमशः…