पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’
क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,
श्लोक (1)
संसार वृक्ष का ऊर्ध्व ब्रह्म, वह मूल जिसे माया कहते,
माया का कुछ अस्तित्व नहीं, होती वह, ऐसा जन कहते ।
बन्ध्या की सन्तति का वर्णन, जिस तरह व्यर्थ, निस्सार रहा,
मिथ्यात्व भाव होता अनादि, वह असत रही यह कहा गया।
सन्दूक पञ्चभूतादिक की, संसार वृक्ष का बीज रही,
सारे प्रपञ्च की जन्मभूमि, वह मृषा ज्ञान की रही छड़ी ।
वर्णित जो ऐसी माया है, वह ब्रह्म वस्तु से पृथक सदा,
परमात्म तत्व का जो प्रकाश, उसमें उसका व्यवहार सधा ।
निर्गुण पर आश्रित यह माया, उत्पन्न करे अज्ञान भाव,
संसार वृक्ष की पहिली जड़, अज्ञान ज्ञान का जो अभाव ।
जो ब्रह्मवस्तु की माया में, फैला होता अज्ञान-चिकुर,
संसार वृक्ष की पहिली जड़, वह बीज भाव, वह बीजांकुर ।
संसार वृक्ष का कन्द पुष्ट, होता जिससे वह ऊर्ध्व ब्रह्म,
कहते हैं उसको बीज भाव, बीजांकुर वह ही रहा अन्य ।
फलभाव सुषुप्ति का बनता है, जाग्रत अरु सुप्त अवस्थायें,
माया से निर्मित जड़ें दीर्घ, ऊपर नीचे बढ़ती जायें ।
अज्ञान वृक्ष का मूल रहा, निर्मल आत्मा है ऊर्ध्व भाग,
नीचे जड़ में अंकुर अनेक, अनगिनती देहों का विकास ।
चहुँओरअंकुरों का प्रसार, नीचे नीचे बढ़ते जाते,
नाना जीवों की देहों में, अंकुर विकास अपना पाते ।
जो ज्ञान रुप अन्तस प्रवृत्ति, वह मानो है अंकुर पहिला,
यह मनस तत्व माया का है, जो मूल पात बनकर छहरा ।
ब्रह्मा इसकी प्रधान शाखा, यह वृक्ष लगे ज्यों अविनाशी,
इसकी अनित्यता जाने जो, मति उसकी भ्रमित न हो पाती।
नीचे की ओर तीन पत्ते, अंकुर से नीचे फूल रहे,
सत, रज, तम इनको कह सकते, जो अहंकार से जुड़ रहते।
शाखा उत्पन्न बुद्धि की जो, वह अहंकार से निकल रही,
जिसके भावों के पातों से, शाखा रहती नित हरी भरी ।
संसार वृक्ष का अपर मूल, उपजाता चित्त-चतुष्टय को,
पीकर विकल्प का रस कोमल, उपजाएँ पाँचों भूतों को ।
आकाश, समीरण, अनल, अनिल, अरु पृथ्वी की ये शाखायें,
बहुविध पत्तों अरु फूलों के, गुण धर्मे से भर हरपायें ।
इनसे होता उत्पन्न रुप, इनसे रस गन्ध छहरता है,
अरु विषय-वासना की हिलोर से सारा वृक्ष हहरता है।
ज्ञानी इसको अश्वत्थ कहें, क्षण-क्षण में इसका परिवर्तन,
अव्यय भी इसको कहते हैं, मिट-मिटकर पाता यह जीवन ।
क्षण में मिटते कितने शरीर, कितने ही क्षण में बन जाते,
लगता न पता कब पात झरा, कब नये पात हैं आ जाते ।
भववृक्ष अनित्य असत लेकिन, लगता है नित्य सत्य जैसा,
जैसे विचार बनते रहते, दिखलाई देता है वैसा । क्रमशः…