पञ्चदशोऽध्यायः – “पुरुषोत्तम योग’ अध्याय पंद्रह – ‘जीवन का वृक्ष’
क्षर पुरुष (क्षेत्र), अक्षर पुरुष (क्षेत्रज्ञ), और पुरुषोत्तम (परमेश्वर)- तीनों का वर्णन, क्षर और अक्षर से भगवान किस प्रकार उत्तम हैं, किसलिए पुरुषोत्तम कहलाते हैं। आदि- पुरुषोत्तम योग,
श्लोक (1)
ब्रहात्म- ऐक्य का ज्ञान जिसे, वह रहा मोक्ष का अधिकारी,
आँखे हों जिसके पास, सूर्य की, देख सके वह छवि सारी ।
धरती के भीतर छिपा द्रव्य, जिसने अंजन आँजा, दीखा,
पर अंजन ऑज सके इसकी, होती है कुछ आवश्यकता ।
हो अंतःकरण शुद्ध सात्विक, वैराग्य भाव बिन ज्ञान नहीं,
जाने भोजन में मिला जहर, खाता उसको क्या मनुज कहीं?
संसार अनित्य, अशाश्वत है, यह बोध विराग जगाता है,
जड़ से उखाड़ दें यदि तरु को, वह सूख नष्ट हो जाता है।
संसार विशाल वृक्ष अर्जुन, इसकी लीला सचमुच अपार,
ऊपर को इसकी जड़े रहीं, नीचे इसका विस्तृत प्रसार ।
जितना जो कुछ जगतीतल, इस एक वृक्ष ने घेर रखा,
अज्ञात सूर्य की ऊंचाई, इसके न छोर का रहा पता ।
इसमें जितना जो कुछ भी है, वह केवल, केवल वृक्ष रहा,
इसको उखाड़ कर नहीं किसी ने, उल्टा करके इसे रखा ।
इसके फल की यदि चाह जगे, तो फल इसमें लगते न कभी,
इसकी सुगन्ध लेना चाहो, तो इसमें खिलते फूल नहीं ।
रहता सदैव यह हरा भरा, नीचे भी जड़ें झुकीं इसकी,
विस्तार चतुर्दिक है इसका, इससे न रिक्त है जगह कहीं।
यह पीपल या बटवृक्ष सदृश, बहु रहीं कोपलें शाखायें,
केवल नीचे की ओर नहीं, जो दिशा-दिशा में छा जायें।
मानो वेलों से सजा हुआ, आकाश वृक्ष पर जो फैली,
विस्तार वृक्ष का ही समझो, जो वायु जहाँ तक है फैली।
जागृत या स्वप्न सुषुप्ति दशा, उत्पत्ति मध्य या लय दर्शन,
आश्रय स्थल तीनों का बन, यह वृक्ष धारता है जीवन ।
यह वृक्ष विलक्षण ऊर्ध्वमूल्य, यह अधोमुखी होकर बढ़ता,
है ऊर्ध्वब्रह्म प्रारंभ जहाँ, होता है, इस तरु की जड़ का ।
सर्वोत्तम है, सर्वोच्च ब्रह्म, आरंभ, मध्य या अन्त हीन,
संसार वृक्ष का मूल रहा, उस अन्तहीन के ही अधीन ।
ऐसा वह नाद, श्रवण जिसको, सौ यत्न करें, सुन सकें नहीं,
ऐसी सुगन्ध, घ्राणेन्द्रिय से, अनुभव जिसका हो सके नहीं।
ऐसा आनंद विषय सेवन, के बिन हो जो उपलब्ध स्वयं,
अदृश्य रुप, बिन दृग के ही, जो दे देता अपना दर्शन ।
जो ज्ञाता नहीं, न ज्ञातवस्तु, पर बोध ज्ञान का करवाता,
जो सुख से है परिपूर्ण मगर, आकाश, शून्यवत बन जाता ।
कारण भी नहीं, न कार्य रहा, जो द्वैत नहीं, अद्वैत नहीं,
ऐसा वह आत्म स्वरुप रहा, बन रहे वृक्ष का ऊर्ध्व वहीं । क्रमशः…