द्वादशोऽध्यायः – ‘भक्तियोग’
‘व्यक्तिक भगवान की पूजा, परमब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है’
श्लोक (१)
अर्जुन उवाच:-
भगवान कृष्ण की बातों से, जागी यह मन में जिज्ञासा,
है कौन उपासक श्रेष्ठ, ब्रह्म के सगुण रुप को जो ध्याता?
या वह जो ध्याता निराकार, निर्गुण स्वरुप को हो अनन्य?
किसकी उपासना श्रेष्ठ रही, है कौन उपासक अधिक धन्य?
हे कृष्ण, विनत अर्जुन बोले, प्रभु निराकार साकार आप,
निर्गुण अरु सगुण रुप दोनों, दोनों रुपों के परे आप ।
कुछ भक्त भजें साकार रुप, कुछ निराकार अव्यक्त भजें,
इनमें उपासना कौन श्रेष्ठ, अरु कौन सिद्ध सविशेष रहें?
हो भक्तियुक्त अविनन्तर जो, भजते हैं तुझको हे भगवन,
तू निर्गुण-सगुण रुप दोनों, दोनों रुपों का हुआ भजन ।
है कौन उपासना अधिक श्रेष्ठ, उसकी जो निर्गुण रुप भजे?
या उसकी जो लीलाधारी, अवतारी कोई रुप भजे?
इस ओर भक्तगण विधिपूर्वक, कर रहे देव तेरी पूजा,
उस ओर साधना निरत रहे, साधकगण पकड़ मार्ग दूजा ।
अव्यक्त, व्यक्त इन रुपों में, हो रही उपासना हे भगवन,
है योग-ज्ञान किसको ज्यादा, है अधिक श्रेष्ठ किसका साधन?
कुछ लोग साधना करते हैं, उसकी जो ब्रह्म निरामय है,
अव्यक्तिक है संसार जिसे, माया है या केवल क्षय है।
कुछ व्यक्त जगत के जीवन में जीवों में उसकी छवि लखते,
परमात्मा का अपने-अपने ढंग से है वे पूजन करते
आत्मा की, या परमात्मा की, या ब्रह्म तत्व हैं या ईश्वर की,
अवतारी लीलाधारी की-या परे परम अविकारी की ।
किसकी उपासना श्रेष्ठ रही, पालन करते साधक जिनका,
है कौन योग प्रभु सर्वश्रेष्ठ, आराधना जो प्रशस्त करता?
हे केशव निर्गुण-सगुण रुप, आत्मा भी हैं, परमात्मा भी,
हो रहे सगुण जीवात्मा में, अरु रहे परे परमात्मा भी ।
पर परमात्मा से परे रहे, अव्यक्त रुप प्रभु अविनाशी,
वह भक्ति कौन सी हे प्रभुवर, जो सर्वोत्तम समझी जाती? ।
भगवन जो जैसा रुप भजे, वैसा ही रुप मिले उसको,
जो निराकार को भजता है, मिलता है निराकार उसको ।
साकार रुप भजने वाला, साकार रुप ही पाता है,
किसका है वरण श्रेष्ठ भगवन, कैसे से वह पाया जाता है? ।
श्लोक (२)
श्री भगवानुवाच :-
भगवान कृष्ण बोले अर्जुन, मेरे प्रतिपूर्ण समर्पित जो,
मुझमें एकाग्र चित्त रखते, श्रद्धापूर्वक नित भजते जो ।
जिनका मन मुझमें लीन रहे, जो नित्य निरन्तर करें भजन,
हैं परमसिद्ध योगी वे ही, मैं ऐसा मान रहा अर्जुन ।
अति उत्तम योगी मान्य मुझे, जो सगुण रुप मेरा भजता,
मेरे प्रति हुआ समर्पित जो, मुझमें अविचल श्रद्धा रखता ।
एकाग्र चित्त होकर मेरा, करता रहता जो आराधन,
वह रहा योगियों में उत्तम, ऐसा मैं सोच रहा अर्जुन ।
है अच्छा उनको ज्ञान पार्थ, साकार रुप में जो भजते,
निष्ठापूर्वक सच्चे मन से, मेरी जो नित पूजा करते ।
मेरी विभूतियों में रखते विश्वास अडिग निर्भर मुझपर,
वे योगवेत्ता हैं उत्तम, कोई न रहा उनसे बढ़कर । क्रमशः….