एकादशोऽध्यायः ‘विश्व रूप दर्शन योग’
अध्याय ग्यारह – ‘भगवान का दिव्य रूपान्तर’
श्लोक (५२)
श्री भगवानुवाच:-
भगवान कृष्ण बोले अर्जुन, यह रुप जिसे तू देख सका,
अति दुर्लभ है इसका दर्शन, लेकिन तुझको यह सुलभ रहा ।
ब्रह्म, विष्णु, शिव, देववृन्द, उत्कण्ठित इसके दर्शन को,
पर नराकार द्विभुज स्वरुप के, दर्शन सुलभ रहे सबको ।
तूने देखा वह रुप पार्थ, सबको न सुलभ जिसका दर्शन,
जिसके दर्शन को अति उत्सुक, लालायित रहते हैं सुरगण ।
तुम विश्व रुप पर प्रेम करो, फिर सगुण रुप में मिलो मुझे,
फिर विष्णु रुप में लय हो,लो, यह सूत्र दिखाया एक तुझे ।
मिल जाए सोने का पर्वत, अन्धा न करे कीमत उसकी,
यह मन की छुद्र भावना ही, तज मूल्यावान, थोथा गहती ।
यह विश्वरुप जो दिखलाया, नर क्या देवों को सुलभ नहीं,
अल्पांश देख पायें इसका, चाहा करते यह देव सभी ।
कोई न मार्ग ऐसा अर्जुन, जो विश्वरुप तक पहुँचाये,
वेदों का सारा ज्ञान चुका, जप तप का फल न इसे पाये ।
इस तक न पहुँचते यज्ञ, दान, पर इसको केवल वह पाता,
जो भक्तियुक्त मेरा अनन्य, मेरी प्रसन्नता बन जाता ।
श्लोक (५३)
हे अर्जुन दिव्य दृष्टि पाकर, तू करता जो मेरा दर्शन,
इस तरह न कोई देख सके, आगम नियमों का कर अध्ययन ।
या दान दक्षिणा पूजा से, या तप से भी न रहा सम्भव,
मेरा तात्विक साक्षात्कार, होता न साधनों से सम्भव ।
जिज्ञासा होती है भगवन, फिर कैसे हो साक्षात्कार?
कैसे हो सके दिव्य दर्शन, कैसे मिल पाए तत्व सार?
कैसे प्रवेश हो प्रभुता में, यदि साधन कोई सफल नहीं?
दर्शन की विधि कुछ तो होगी, कोई तो होगी राह कहीं?
श्लोक (५४)
अर्जुन जो भक्त अनन्य रहा, करता मेरा साक्षात्कार,
वह देख सके प्रत्यक्ष मुझे, साकार बनूँ मैं निराकार ।
वह मुझे तत्व से जान सके, कर पाए वह मुझमें प्रवेश,
कर सके दिव्य दर्शन अर्जुन, होकर वह प्रिय मेरा विशेष ।
कर सका पार्थ साक्षात्कार इसलिए कि भक्ति अनन्य रही,
तू मुझे तत्व से जान सका, मुझमें अनुरक्ति अखण्ड रही ।
अर्जुन मैं तत्व रहस्य पूर्ण, इसमें प्रवेश तू कर पाए,
देखा जाना पर पाने को, यह भक्ति योग ही अपनाए ।
श्लोक (५५)
हे अर्जुन शुद्ध भक्ति जिसकी, मेरे प्रति पूर्ण समर्पित जो,
पहिले के कर्म ज्ञान के फल, तज चुका असंग हुआ जन जो ।
जिसमें न बैर विद्वेष भाव, जो प्राणिमात्र का मित्र रहा,
वह मुझे प्राप्त होता अर्जुन, मैं रहता उसके साथ सदा ।
अपने समस्त कर्तव्य कर्म, मेरे प्रति करने वाला जो,
जो भक्ति युक्त, आसक्ति रहित, मेरे प्रति रहे परायण जो ।
सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति जिसमें, दया भाव हो, बैर न हो,
वह पुरुष अनन्य भक्त मेरा, होता है पार्थ प्राप्त मुझको ।
है सार भक्ति का यही कि, प्रभु चरणों में आत्मा लगी रहे,
आराध्य देव सर्वत्र व्याप्त, इसका अविचल विश्वास जगे ।
जो कुछ भी काम करे वह हो, प्रभु हेतु समर्पित प्रभु को ही,
प्रभु होते हैं, उससे प्रसन्न, बढ़ गले लगाते उसको ही ।
कैसी भी प्रकृति रहे अपनी, कैसा भी हो व्यवसाय भले,
हों सृजनशील चिन्तक या कवि, या नर नारी सामान्य भले ।
प्रतिभा विशेष के धनी न हों, पर प्रेमी प्रभु के अगर रहे,
तो सबसे बड़ी दैन पाई, सबसे बढ़कर सम्पन्न रहे ।
परमात्मा के उपकरण बने, वह प्रेम प्रगट करता अपना,
उसके साधन बनकर रहते, उद्देश्य पूर्ण करता अपना ।
समस्वर परमात्मा से होता, आत्माओं का संसार सजग,
उसकी इच्छा, अपनी इच्छा से कर लेता वह जन्म सफल ।
जग ही हर वस्तु रही सीमित, सीमित सारा संसार रहा,
है पृष्ठभूमि, परमात्मा जो, जीवात्मा में आभास रहा ।
यह सत्य उतरता जीवन में, तब ही सार्थक दर्शन परसन,
सम्पूर्ण स्वभाव ब्रह्ममय हो, स्वैच्छिक हो अरु रुपान्तरण ।
कितना भी गहरा हो प्रभाव, कितना ही चाहे विशद रहे,
लेकिन यदि रहा न ध्रुव होकर, दर्शन न कभी उपलब्धि बने ।
मिल जाता अन्तिम सत्य नहीं, चलती रहती है खोज पार्थ,
चलना ही चलना है केवल, जब तक न प्राप्त होता यथार्थ
जो भक्ति युक्त, आसक्ति रहित, जीवों के प्रति जो दयावान,
सारे जग जीवन में मुझको, जो देखे अविकल विद्यमान ।
मन कर्म वचन से अर्पित जो, जीता बनकर मेरा साधन,
अर्जुन वह प्यारा भक्त मुझे, पा लेता करके आराधन ।
卐। इति विश्व रूप दर्शनयोगो नामै एकादशोऽध्यायः ।卐ा