‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 130 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 130 वी कड़ी ..

                   एकादशोऽध्यायः ‘विश्व रूप दर्शन योग’

         अध्याय ग्यारह – ‘भगवान का दिव्य रूपान्तर’

श्लोक   (48)

हे कुरुप्रवीर तुझसे पहिले, देखा न किसी ने विश्वरुप,

केवल तूने इसको देखा, यह अतिशय तेजोमय अनूप ।

स्वाध्याय न वेदों का, इसका दर्शन करवा पाए अर्जुन,

यज्ञादि दान तप के विधान, करवा न सकें इसके दर्शन ।

 

मेरी प्रसन्नता का प्रसाद, यह विश्व रुप तुमने देखा,

दुख से या भय से ग्रसित हुए, अपना सौभाग्य नहीं लेखा ।

भूलोक यहाँ जितने साधन, क्या अन्य लोक में कहीं रहे,

पर सारे साधन करके भी, क्या मनुज प्राप्त सौभाग्य करे?

 

जो विश्वरुप तुमने देखा, वह बिना परिश्रम प्राप्त हुआ,

क्या मनुज लोक में अन्य किसी को, ऐसा अवसर प्राप्त हुआ?

मानव क्या ब्रह्म देव को भी, दुर्लभ यह विश्व रुप दर्शन,

तू श्रेष्ठ वीर होकर भी क्यों, डर गया देख इसको अर्जुन?

श्लोक  (49)

मेरा यह भीषण रुप देख, व्याकुल भयभीत न हो अर्जुन,

तज दे विमूढ़ता, भय तज दे, भर प्रीतिभाव से अपना मन ।

रे भक्तप्रवर उत्कण्ठित तू, जो रुप देखना चाह रहा,

ले उसी रुप का दर्शन कर, मैं पूर्व रुप ही धार रहा ।

 

भय तजकर हो जा प्रीति युक्त, ले देख चतुर्भुज रुप पार्थ,

जो शंख गदा से युक्त रहा, जो पद्म-चक्र से युक्त पार्थ ।

मेरे विकराल रुप से यों, होना न चाहिए था अशान्त,

संवरण कर रहा हूँ उसका, दिखलाता रुप प्रशान्त कान्त

 

तुम जिसे देखना चाह रहे, यह रुप पुनः दिखलाता हूँ

व्याकुलता तज हो ले प्रसन्न, ले भयकर रुप हटाता हूँ।

निर्भय होकर देखों इसको अपनी अभिलाषा पूर्ण करो,

काया को तजकर छाया को, लो अर्जुन अंगीकार करो ।

श्लोक  (५०)

संजय उवाच:-

संजय ने कहा कि हे राजन, इस तरह कृष्ण ने समझाया,

फिर विष्णु चतुर्भुज रुप दिव्य, अपना अर्जुन को दिखलाया।

फिर द्विभुज रुप धारण करके, अपने प्रिय को आश्वस्त किया,

अत्यन्त मधुर मृदु वाणी से, हे कुरुपति उसे कृतार्थ किया ।

 

दर्शन करवा के विष्णु रुप, मानुष तनधारी हुए कृष्ण,

अति शान्त, श्याम सुन्दर, मोहन, लीलाधारी भगवान कृष्ण ।

धारण कर विश्व रुप प्रभु ने, अर्जुन की इच्छा पूरी की,

पर अर्जुन उससे घबराया, इसलिए विभूति वह लौटा ली ।

 

पाया अर्जुन ने समाधान, फिर प्राण लौट उसके आए,

ज्यों राका के घिर आने पर, राकापति उसको चमकाए ।

अर्जुन को फिर रणभूमि दिखी, सेनाएँ गोत्रज वहीं दिखे,

रथ, घोड़े, मण्डप वही दिखा, गोपाल कृष्ण भी वही दिखे ।

 

सागर अमृत का मिला उसे, वह डरा कि कही न डूब जाए,

सोने का पर्वत छूट गया, इसलिए कि कौन ढोने पाए ।

चिन्तामणि मिलकर छूट गई, इसलिए कि भार दिखा उसमें,

पालन के भय से छूट गई, जो कामधेनु पाई जग में !

श्लोक  (५१)

अर्जुन उवाच:-

अर्जुन को पहिले विष्णु रुप, फिर द्विभुज रुप हरि का दीखा,

चिर परिचित रुप कान्ति लखकर, खिल गया कमल उसके जी का।

अति विनत भाव बोला अर्जुन, अति आनन्दित मन इसे देख,

मिल रही चित्त को परम शान्ति, मैं हुआ प्रकृति गत अरु सचेत ।

 

हो गया चित्त सुस्थिर मेरा, हो गया दूर भय भ्रम सारा,

उत्पन्न हुए तन में विकार उनसे पाया मैं छुटकारा ।

हो गई पूर्ववत दशा देव, कमनीय रुप लखकर भगवन,

कितना न मुदित कर जाता है, हे देव आपका तन-दर्शन ।

 

धारण जो किया मनुष्य रुप, जी भरकर इसको देख लिया,

मानों लहरों में तिरते को, हाथों का आश्रय-कूल मिला ।

हर ली है प्यास तपन प्रभुवर, मेघों से अमृत बरसाकर,

हो गई हर्ष की बेल हरी, प्रभु अपना पहिला जग पाकर ।

 

हो गया देव मैं प्राणवान, इन्द्रियाँ व्यवस्थित हो आई,

जिनका था कार्य कलाप बन्द, वे नई चेतना फिर पाई।

मन ज्ञान बुद्धि सब जंगल में, मानो भूले थे, भटक रहे,

श्रीकृष्ण आपके दर्शन कर, सारे अवयव आनन्द पगे । क्रमशः….