‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 129 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 129 वी कड़ी ..

                   एकादशोऽध्यायः ‘विश्व रूप दर्शन योग’

         अध्याय ग्यारह – ‘भगवान का दिव्य रूपान्तर’

श्लोक   (४४)

हे प्रभो आप हैं परमेश्वर, आराध्य प्राणियों के जग में,

शरणागत हो करता प्रणाम, हे प्रभु गिरकर मैं चरणों में ।

कर कृपा क्षमा अपराध करें, मुझ पर प्रसन्न होवें भगवन,

ज्यों पिता पुत्र को, सखा-सखा, प्रियतम प्रेमी को करे सहन ।

 

ज्यों मित्र मित्र की बात सहे या प्रेमी प्रिय की सहता है,

या पिता पुत्र को माफ करे, अपनत्व बनाए रहता है ।

अपराध अनेक किए भगवन, उनकी न रही कोई गिनती,

पर मित्र पिता, प्रेमी जैसी हो क्षमा, करूँ प्रभुवर विनती ।

 

सारा जग गुण-गौरव गाये, फिर भी न गान गाने पाता,

इतना विस्तार महेश्वर हे, क्या उनकी वाणी में आता?

कर सकूँ प्रसन्न न मुझमें बल, क्षमता न रही इतनी प्रभुवर,

कारण वश जो अपराध हुए, वे साल रहे मुझको प्रभुवर ।

 

अज्ञान प्रमाद रहा भारी, पड़कर जिसमें अपराध किए,

या भाव-विनोद रहा मन में, जिसने सब छीन विचार लिए।

या प्रेम रंग में रंगराते, कर सके न वस्तु परक चिन्तन,

हो क्षमा, दया हो दीनबन्धु, हो क्षमा, विनय मेरी भगवन ।

श्लोक  (४५)

जिसको न कभी पहिले देखा, उस विश्वरुप का कर दर्शन,

हे नाथ हृदय हर्षित मेरा, पर भय से व्याकुल मेरा मन ।

मुझ पर प्रसन्न हों, दया करें, देवेश दिखायें पूर्व रुप,

हे जग-निवास उपकार करें, दिखलायें चतुर्भुजी स्वरुप ।

 

कर ले संवरण विराट रुप, इसको मैं देख नहीं सकता,

दर्शन कर हर्षित होता मन, पर रुप भयानक भय भरता ।

प्रभु विष्णु रुप वह दिखलायें, वह चतुर्भुजी मनुजावतार,

मुझ पर प्रसन्न होवें भगवन, हे जगदीश्वर हे दयागार ।

 

कृतकृत्य किया मुझको भगवन, पूरी कर मेरी अभिलाषा,

पर विश्वरुप यह भयकारी, भीषण भय मन में उपजाता ।

इसको समेट लीजे भगवन, दिखलायें अपना विष्णु रुप,

जो ज्ञान ध्यान पूजन व्रत की, फल श्रुति है अति सुन्दर अनूप ।

श्लोक  (४६)

हे विश्वमूर्ति मैं आतुर हूँ, वह पूर्णरुप कर लें धारण,

नारायण रुप चतुर्भुज प्रभु, पा सके शान्ति व्याकुल यह मन ।

सिर पर मणियों का हो किरीट, हाँथो में शंख गदा भगवन,

हो चक्र सुदर्शन, चन्द्रदेव, हे सहस्त्र बाहु दें वह दर्शन ।

 

भगवन दिखलाएँ सौम्य रुप, इस रौद्र रुप से काँप रहा,

श्री हरि का चतुर्भुजी दर्शन, पाने का मन में चाव बढ़ा ।

वह विष्णु रुप धारण करिए, मणि जटित मुकुट सिर पर जिनके,

हाथों में गदा शंख शोभित, अंगुली पर सधा चक्र जिनके

श्लोक  (४७)

भगवानुवाच:-

भगवान कृष्ण बोले, अर्जुन, मेरा यह तुझे अनुग्रह था,

जो विश्वरुप यह दिखलाया, यह योग शक्ति का विग्रह था ।

तुझसे पहिले यह तेजोमय देखा न किसी ने रुप कभी,

भक्तों के मन की इच्छायें, हे पार्थ करूँ मैं पूर्ण सभी ।

 

समझाने अपना गुण प्रभाव, समझाने मूल तत्व अर्जुन,

यह रुप अलौकिक दिखलाया, इसमें भय का न रहा कारण।

इसके दर्शन दुर्लभ सबको, हर समय न कोई देख सके,

जिसको देता हूँ दिव्य दृष्टि, केवल यह इसको देख सके ।

 

सौभाग्य तुम्हारा था अर्जुन, तुमको यह दर्शन प्राप्त हुआ,

अति दिव्य, असीम उत्कृष्ठ बहुत, यह रुप मूल का अंश रहा ।

तुमसे पहिले न किसी ने भी, देखा यह मेरा रुप कभी,

यह प्रेम भक्ति का प्रतिफल है, साधन से मिलता नहीं कभी ।

 

तुम पर प्रसन्न होकर मैंने, इस परम रुप को दिखलाया,

अति दिव्य शक्ति से तेजोमय, कोई न देख जिसको पाया ।

तेरे सिवाय तुझसे पहिले, इसको न किसी ने देखा है,

तू अपनी भक्ति अहेतुक से, मुझको वश में कर लेता है ।

 

यह अन्तिम लक्ष्य नहीं अर्जुन, अनुभव का है स्थायी भाव,

श्रद्धा में रुपान्तरित हुआ, जो बदल सके मानव-स्वभाव ।

यह मार्ग खोलता है केवल, अब तुमको आगे बढ़ना है,

आँखों की देखी बात इसे, अन्तस से और परखना है । क्रमशः…