एकादशोऽध्यायः ‘विश्व रूप दर्शन योग’
अध्याय ग्यारह – ‘भगवान का दिव्य रूपान्तर’
श्लोक (४४)
हे प्रभो आप हैं परमेश्वर, आराध्य प्राणियों के जग में,
शरणागत हो करता प्रणाम, हे प्रभु गिरकर मैं चरणों में ।
कर कृपा क्षमा अपराध करें, मुझ पर प्रसन्न होवें भगवन,
ज्यों पिता पुत्र को, सखा-सखा, प्रियतम प्रेमी को करे सहन ।
ज्यों मित्र मित्र की बात सहे या प्रेमी प्रिय की सहता है,
या पिता पुत्र को माफ करे, अपनत्व बनाए रहता है ।
अपराध अनेक किए भगवन, उनकी न रही कोई गिनती,
पर मित्र पिता, प्रेमी जैसी हो क्षमा, करूँ प्रभुवर विनती ।
सारा जग गुण-गौरव गाये, फिर भी न गान गाने पाता,
इतना विस्तार महेश्वर हे, क्या उनकी वाणी में आता?
कर सकूँ प्रसन्न न मुझमें बल, क्षमता न रही इतनी प्रभुवर,
कारण वश जो अपराध हुए, वे साल रहे मुझको प्रभुवर ।
अज्ञान प्रमाद रहा भारी, पड़कर जिसमें अपराध किए,
या भाव-विनोद रहा मन में, जिसने सब छीन विचार लिए।
या प्रेम रंग में रंगराते, कर सके न वस्तु परक चिन्तन,
हो क्षमा, दया हो दीनबन्धु, हो क्षमा, विनय मेरी भगवन ।
श्लोक (४५)
जिसको न कभी पहिले देखा, उस विश्वरुप का कर दर्शन,
हे नाथ हृदय हर्षित मेरा, पर भय से व्याकुल मेरा मन ।
मुझ पर प्रसन्न हों, दया करें, देवेश दिखायें पूर्व रुप,
हे जग-निवास उपकार करें, दिखलायें चतुर्भुजी स्वरुप ।
कर ले संवरण विराट रुप, इसको मैं देख नहीं सकता,
दर्शन कर हर्षित होता मन, पर रुप भयानक भय भरता ।
प्रभु विष्णु रुप वह दिखलायें, वह चतुर्भुजी मनुजावतार,
मुझ पर प्रसन्न होवें भगवन, हे जगदीश्वर हे दयागार ।
कृतकृत्य किया मुझको भगवन, पूरी कर मेरी अभिलाषा,
पर विश्वरुप यह भयकारी, भीषण भय मन में उपजाता ।
इसको समेट लीजे भगवन, दिखलायें अपना विष्णु रुप,
जो ज्ञान ध्यान पूजन व्रत की, फल श्रुति है अति सुन्दर अनूप ।
श्लोक (४६)
हे विश्वमूर्ति मैं आतुर हूँ, वह पूर्णरुप कर लें धारण,
नारायण रुप चतुर्भुज प्रभु, पा सके शान्ति व्याकुल यह मन ।
सिर पर मणियों का हो किरीट, हाँथो में शंख गदा भगवन,
हो चक्र सुदर्शन, चन्द्रदेव, हे सहस्त्र बाहु दें वह दर्शन ।
भगवन दिखलाएँ सौम्य रुप, इस रौद्र रुप से काँप रहा,
श्री हरि का चतुर्भुजी दर्शन, पाने का मन में चाव बढ़ा ।
वह विष्णु रुप धारण करिए, मणि जटित मुकुट सिर पर जिनके,
हाथों में गदा शंख शोभित, अंगुली पर सधा चक्र जिनके
श्लोक (४७)
भगवानुवाच:-
भगवान कृष्ण बोले, अर्जुन, मेरा यह तुझे अनुग्रह था,
जो विश्वरुप यह दिखलाया, यह योग शक्ति का विग्रह था ।
तुझसे पहिले यह तेजोमय देखा न किसी ने रुप कभी,
भक्तों के मन की इच्छायें, हे पार्थ करूँ मैं पूर्ण सभी ।
समझाने अपना गुण प्रभाव, समझाने मूल तत्व अर्जुन,
यह रुप अलौकिक दिखलाया, इसमें भय का न रहा कारण।
इसके दर्शन दुर्लभ सबको, हर समय न कोई देख सके,
जिसको देता हूँ दिव्य दृष्टि, केवल यह इसको देख सके ।
सौभाग्य तुम्हारा था अर्जुन, तुमको यह दर्शन प्राप्त हुआ,
अति दिव्य, असीम उत्कृष्ठ बहुत, यह रुप मूल का अंश रहा ।
तुमसे पहिले न किसी ने भी, देखा यह मेरा रुप कभी,
यह प्रेम भक्ति का प्रतिफल है, साधन से मिलता नहीं कभी ।
तुम पर प्रसन्न होकर मैंने, इस परम रुप को दिखलाया,
अति दिव्य शक्ति से तेजोमय, कोई न देख जिसको पाया ।
तेरे सिवाय तुझसे पहिले, इसको न किसी ने देखा है,
तू अपनी भक्ति अहेतुक से, मुझको वश में कर लेता है ।
यह अन्तिम लक्ष्य नहीं अर्जुन, अनुभव का है स्थायी भाव,
श्रद्धा में रुपान्तरित हुआ, जो बदल सके मानव-स्वभाव ।
यह मार्ग खोलता है केवल, अब तुमको आगे बढ़ना है,
आँखों की देखी बात इसे, अन्तस से और परखना है । क्रमशः…