‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 128 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 128 वी कड़ी ..

                   एकादशोऽध्यायः ‘विश्व रूप दर्शन योग’

         अध्याय ग्यारह – ‘भगवान का दिव्य रूपान्तर’

श्लोक   (४०) 

सामर्थ्य आपका अमित देव, है नमन आपको सर्वात्मन,

सर्वत्र रहे, सर्वज्ञ रहे, कोई न दिशा खाली भगवन ।

ऊपर-नीचे, दायें-बायें, आगे-पीछे प्रभु नमस्कार,

हे सर्वेश्वर हे सर्वरुप, अपरिमेय प्रभु हे नमस्कार ।

 

हैं परम पराक्रमशाली प्रभु, हैं आप अमित सामर्थ्यवान,

परिव्याप्त आपसे विश्व रहा, सब ओर आप हैं विद्यमान ।

प्रभु रहे आप ही सर्वरुप, करता सम्मुख मैं नमस्कार,

पीछे भी नमस्कार करता, चहुं दिशि प्रभु मेरा नमस्कार ।

 

प्रभु भली भांति मैं समझ गया, जग जीवन के सारे पदार्थ,

भासित हैं केवल इसीलिए, उनमें बसते विभु स्वयं आप ।

जिसके न पराक्रम की सीमा, जिसके विक्रम की थाह नहीं,

संसार मात्र के जीवनधन, हे सर्वेश्वर हैं आप वही ।

 

ऐसा यह रुप सर्वव्यापक, पहिले न जानता था भगवन,

करता जो मैं व्यवहार रहा, वह क्षमा कीजियेगा भगवन

मैं रहा मूढ़मति हे प्रभुवर, प्रभुता पहिचान नहीं पाया,

अपनी करनी का घेर रहा है, हे प्रभु मुझको पछतावा ।

श्लोक  (४१)

हे प्रभो अचिन्तय प्रभाव आप, महिमा न आपकी जान सका,

मैं कितना भूला रहा प्रभो, जो देव आपको सखा कहा ।

यह प्रेम रहा अथवा प्रमाद, जो किए आपको सम्बोधन,

हे कृष्ण, सखा हे, हे यादव, कर याद विकल होता है मन ।

 

माहात्म्य जिसे देखा भगवन, पहिले इससे अनजान रहा,

अनजाने में मैंने जगपति, अपनेपन में क्या नहीं कहा?

यह बहुत बड़ी गलती मेरी, इसका है मुझको पछतावा,

दें क्षमादान मुझको भगवन, अपराध हुआ यह अनचाहा ।

 

पारस का मूल्य न आँक सका, उसको केवल पत्थर समझा,

थी कामधेनु वह, मैं जिसको, अपने ही जैसा पशु समझा ।

अमृतघट रिता दिया मैंने, उससे केवल छिड़काव किया,

सुरतरु की लकड़ी काट-काट, उसको बाड़ी के काम लिया ।

 

चिन्तामणि की जो खान मिली, उससे बस नींव भरी अपनी,

मध्यस्थ बनाकर स्वारथ को करने पूरी साधें अपनी ।

हे जगदीश्वर अपने जैसा ही, रहा समझता साधारण,

बन रहे सारथी कृपानिधान, मेरी नासमझी के कारण ।

 

क्या-क्या विनोद, क्या हास्य किए, क्या-क्या न बाल क्रीड़ाएँ कीं,

क्या-क्या न किया त्रिभुवन पति को, मैंने झिड़का, शिक्षाएँ दीं।

उनके संग साथ पटा खेला, खेली चौपड़, लाठी भाँजी,

क्या-क्या न हुई भूलें भगवन, क्या-क्या न रेखा मैंने लांघी?

 

कब नहीं बात पर रुठ गया, कब आसन पर सँग बैठ गया,

कब नहीं बड़प्पन दर्शाने, बातों बातों में ऐंठ गया ।

कह कृष्ण पुकारों कभी विभो, यादव से समझा भिन्न नहीं,

हे शाड्डुर्धर बन गये सखा, मैं पात्र न इसके रहा कभी

श्लोक  (४२)

अपराध किए मैंने अच्युत, मैंने संग साथ विहार किया,

शैय्या पर सोया साथ देव, भोजन भी मैंने साथ किया ।

अपमानित किया अकेले में, या किया सखाओं बीच कभी,

अपराध क्षमा कर दें भगवन, पाऊँगा मन की शान्ति तभी ।

 

अति परिचय के कारण भगवन, लांघी मैंने अपनी सीमा,

उन सबके लिए क्षमा कर दें, तब ज्ञात न थी प्रभु की महिमा।

गन्दा जल सरिता का मिलने, सागर की ओर बढ़ा जाता,

क्या करुणा-सिन्धु समुद्र नहीं, उसको अपने में अपनाता?

 

अप्रतिम अपार महिमा भगवन, इसको न जानने के कारण,

मैं मित्र मानता रहा देव, समभाव किए मन में धारण ।

हे पुरुषोत्तम करुणा करके, अपराध क्षमा कर दो मेरे,

जाने अनजाने उन सबको, मैं पड़ा शरण में प्रभु तेरे ।

 

होता न ज्ञान अपराधों का, यदि लखा न होता विश्वरुप,

मालिन्य प्रगट मन का होता, अन्तस जब होता है विभूत ।

हे अच्युत प्रभु, हे अपरिमेय, हो क्षमा प्रार्थना है मेरी,

पृथ्वी यह भार सहन करती, पाकर तुझसे क्षमता तेरी ।

श्लोक  (४३)

हे विष्णो आप चराचर में, संपूर्ण जगत के हैं स्वामी,

हैं जगतपिता, गुरु, पूजनीय, कोई न आप जैसा स्वामी ।

तीनों लोकों के त्रिभुवन पति, कोई न आप जैसा भगवन,

समता की क्षमता रही नहीं, फिर अधिक कौन होगा भगवन?

 

पूज्यों के हे प्रभु पूजनीय, किसका जग में अप्रतिम प्रभाव?

समदृष्टि आपकी सबके प्रति, हे उद्धारक, हे उर-विशाल ।

साष्टांग झुकाकर यह शरीर, तेरे सम्मुख हूँ नत भगवन,

मुझ पर प्रसन्न हो दया करें, हे दयासिन्धु, आनन्द करन । क्रमशः…