बचेगा या टूटेगा नमो मैजिक का तिलस्म ..!

विधानसभा चुनाव में मूल और जनहित के मुद्दे हाशिए पर .. भाजपाई मोदी मैजिक और अन्य विपक्षी दल उग्र-हिन्दुत्व की काट खोज रहे ..

 आरके प्रसाद

पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर विधानसभाओं के चुनाव नजदीक आ रहे हैं और राजनीतिक दलों की सक्रियता भी तेज होती जा रही है। पहले की ही तरह एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी मोदी मैजिक के सहारे वैतरणी पार करने की आस लगाये बैठी है तो दूसरी तरफ अन्य विपक्षी दल नयी रणनीति बनाने, भाजपा के उग्र-हिन्दुत्व की काट खोज रहे हैं।

भाजपा फिर अपने पुराने लय को काफी जोरशोर से तराशने में जुटी है। उत्तर प्रदेश केमुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, पार्टी अध्यक्ष जे पी नड्डा आदि नेता मैदान में हैं।
चुनाव में मूल तथा जनहित के मुद्दे हाशिए पर हैं। योगी हर सभाओं में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, राम मंदिर, मथुरा को उपलब्धियों में शुमार कर रहे हैं। वे माफिया के खिलाफ बुलडोजर की बात करते हैं, एक्सप्रेस-वे की चर्चा करते हैं, नारियों को दी गयी सुरक्षा की बातें कहते हैं।

एक सांस में उज्जवला योजना, आवास योजना को गिनाते हैं। लेकिन वे हाथरस भूल जाते हैं, उन्नाव उन्हें याद नहीं आता और लखीमपुर खीरी में तो भाजपा के मंत्री पुत्र शामिल है। बेरोजगारी, महंगाई तो कोई मुद्दा ही नहीं है। 2014, 2017 और 2019 के चुनावों में भी धार्मिक मुद्दे थे लेकिन इस बार इसे उग्र गति दी गयी है। अब संतों ने भी मोर्चा संभाल लिया और भड़काऊ तथा घृणास्पद भाषण दे रहे हैं।

वे भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने और गिरफ्तार संतों की रिहाई की मांग कर रहे हैं। इतना ही नहीं, वे महात्मा गांधी की अवहेलना करने से बाज नहीं आते। जबकि उन्हें पता होना चाहिए कि जिस सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति मोदी ने बनवायी, उसका अनावरण किया, जिन्हें राष्ट्रीय नायकों में शुमार करने की कोशिश हो रही है, उसी सुभाष चंद्र बोस ने कस्तूरबा के निधन पर अपने शोक संवाद में पहली बार महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता घोषित किया था। इसके बहुत बाद संविधान ने उन्हें यह सम्मान दिया।

इस प्रकार का उग्र भाषण न केवल देश के लिए घातक है, अपितु अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी धर्मनिरपेक्षता को आघात पहुंचाता है। इसमें सबसे खतरनाक बात भाजपा के शीर्ष नेताओं की रहस्यमय चुप्पी है।
यह ठीक है कि मोदी का कद और लोकप्रियता प्रश्नातीत है लेकिन उतना ही सच यह भी है कि उसमें गिरावट आयी है। हाल में हुए उपचुनाव यही इंगित करते हैं। भाजपा के अटूट, अपराजेय होने का तिलिस्म कांच की तरह टूट रहा है। और कांच जब टूटता है, तब उसकी किर्चे की चुभन टीस दे जाती हैं।

अब उसे उसी की भाषा में करारा जवाब मिल रहा है। बंगाल से लेकर गोवा, कर्नाटक से लेकर मध्य प्रदेश तक भाजपा ने दल बदल का घिनौना खेल खेला, अब उसे लौटाया जा रहा है।

भाजपा को पहली बार चुनावी राज्यों में व्यापक पैमाने पर दलबदल की टीस सहनी पड़ रही है। जहां तक मोदी मैजिक की बात है, वह हमेशा काम नहीं आती। ममता ने पश्चिम बंगाल में इसे प्रमाणित किया है। यदि अखिलेश सही रणनीति अपनाते हैं, तो वे दूसरे ममता साबित होंगे।

अखिलेश यादव की चुनौती से भाजपा चिंतित

अखिलेश यादव और उनकी सपा भाजपा के लिए गंभीर चुनौती बन रही है। जिस दिन प्रधानमंत्री काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का उद्घाटन कर धर्म-ध्वजा फहरा रहे थे, सरकार की उपलब्धियां गिना रहे थे, उसी दिन जौनपुर में अखिलेश सभा कर रहे थे और कह रहे थे कि देखिए यहां कितनी पताकाएं फहर रही हैं। उनके साथ छह दलों के नेता थे।

भाजपा ने जाट समुदाय को साधने की कोशिश की, खुद केंद्रीय मंत्री अमित शाह मैदान में उतरे लेकिन आंशिक सफलता मिली। जाट समुदाय किसान आंदोलन को दौरान किए गये अपमान को नहीं भूल पा रहे हैं। उन्हें परजीवी, आंदोलन जीवी खुद मोदी ने कहा और अन्य नेताओं ने खालिस्तानी आतंकवादी कहा।
वोट अभिमुखी उत्तर प्रदेश में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और दलित नेताओं, जिनमें मंत्री भी शामिल हैं, के भाजपा छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल होने से भाजपा में खलबली है और सबका साथ, सबका विकास को उद्घोष करने तथा जातपात की राजनीति में विश्वास नहीं करने का दंभ भरने वाली पार्टी अब दूसरे दलों के ओबीसी, दलित नेताओं पर डोरे डाल रही है।

स्वामी प्रसाद मौर्य के सपा में शामिल होने के बाद कुर्मी वोट बैंक के खिसकने के रोकने के लिए कांग्रेस के कद्दावर कुर्मी नेता आरपीएन सिंह को पार्टी में ले आयी। अमित शाह जाटों को लुभाने उत्तर प्रदेश पहुंच गये। जहां तक औबीसी चेहरे का सवाल है तो पार्टी के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा है।

गुजरात की जाति प्रथा के अनुसार मोदी का संप्रदाय ओबीसी (तेली) में आता है। दल ने मोदी के इस चेहरे को पेश करने की योजना बनायी हे क्योंकि देश में उनसे बड़ा ओबीसी चेहरा और किलका हो सकता है। पार्टी का लक्ष्य 7 प्रतिशत गैर यादव वोटों को बाद देकर 32-33 प्रतिशत ओबीसी और दलित वोटों को खिसकने से रोकना है।
2014 से ही इन वोटों पर भाजपा की नजर है तथा 2014, 2017, 2019 में इनके वोटों की बदौलत ही भाजपा को भारी सफलता मिली थी। यह तय है कि चुनावी सभाओं और रैलियों में मोदी अपने इस परिचय को भुनाने से परहेज नहीं करेंगे। पिछले तीनों चुनावों में इनमें से करीब 20 शतांश को वृहत्तर हिन्दुत्व की छतरी के अंतर्गत लाने में पार्टी सफल रही थी।

इस बार भी मोदी ही प्रमुख ओबीसी चेहरा होंगे। भाजपा के नेताओं और प्रत्याशियों से कहा गया है कि वे पिछले सात सालों में ओबीसी, दलित उत्थान तथा कल्याण के लिए मोदी सरकार द्वारा उठाये गये कदमों और योजनाओं की जानकारी जनता को दें।

पार्टी के सामने ठाकुर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कारण जिन ओबीसी वोटरों ने मुख फेर लिए हैं अथवा नाराज हैं, उन्हें मनाने की गंभीर चुनौती होगी। भाजपा इस तथ्य से बखूबी परिचित है, इसलिए पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने अपना दल (सोनेलाल) की नेता तथा केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी के अध्यक्ष संजय निषाद को लेकर संयुक्त संवाददाता सम्मेलन किया जिनमें दोनों नेताओं ने कहा कि पिछले सात सालों में प्रधानमंत्री ने ओबीसी समाज के विकास के लिए धारावाहिक रूप से जो कदम उठाये हैं, उसके लिए हम कृतज्ञ हैं अत: हम भाजपा के शरीक के रूप में चुनाव लड़ेंगे।
निषाद ने जरूर कहा कि राज्य में मत्स्यजीवियों के लिए अलग विभाग की स्थापना तथा विकास से जुड़ी कई घोषणाएं अधर में है। आशा है कि चुनाव में जीतने के बाद इन पर ध्यान दिया जायेगा।

राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों की 86 आरक्षित सीटों पर जीतने वाली पाटी की सरकार बनती है। कुछ विधानसभा चुनावों यही लगता है। जातिगत समीकरणों को साधने वाली राजनीतिक पार्टी को सीटें सत्तासीन करती है।

2007 में बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 86 आरक्षित सीटों में से 62 सीटों पर चुनाव जीता और उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। इसी चुनाव में समाजवादी पार्टी के खाते में 12 सीटें और भारतीय जनता पार्टी के खाते में 7 तथा कांग्रेस ने 5 सीटें आयी। 2012 में सबसे ज्यादा समाजवादी पार्टी ने 58 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 15 सीटें मिली थीं। 2017 में भी भारतीय जनता पार्टी ने 78 आरक्षित सीटों पर कब्जा कर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।
इस बीच, चुनावों के सामाजिक समीकरणों को देखते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 200 से ज्यादा प्रमुख जाट नेताओं से मुलाकात की। शाह ने जाट नेताओं से भगवा पार्टी को समर्थन देने की अपील करते हुए कहा कि दोनों मिलकर एक दुश्मन से लड़े थे।

जाट समुदाय की प्रतीक पगड़ी पहने शाह ने पार्टी के पुराने रिश्ते को स्पष्ट करते हुए शाह ने जाट समुदाय की नाराजगी तो दूर करने की कोशिश तो की ही, साथ ही रालोद नेता जयंत चौधरी के प्रति भी नरम रुख दिखाते हुए कहा, हम भी उन्हें चाहते थे, लेकिन उन्होंने गलत घर चुन लिया। अगली बार उनसे बात कर लेना।
चुनाव का पहला चरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है। यहां सामाजिक समीकरणों में जाट समुदाय बेहद अहम है। शाह ने जाट नेताओं से भावुक अपील करते हुए कहा, 2014 में आपने सरकार बनाई। 2017 में बहुत डराया, धमकाया और हड़काया, उनकी जगह कोई और होता तो रो देता, राजा महेंद्र प्रताप सिंह का उल्लेख करते हुए कहा कि उनका सम्मान हमने किया। चौधरी चरण सिंह के बाद सबसे ज्यादा मंत्री जाट समाज से भाजपा ने ही दिए हैं। भाजपा पर जाट समाज का अधिकार है।

गोवा में अकेले दम कांग्रेस

14 फरवरी को होने वाला गोवा चुनाव्पा राजनैतिक पार्टियों के लिए काफी चुनौतीपूर्ण रहेगा। वहीं कांग्रेस के गोवा प्रभारी पी चिदंबरम ने कहा था कि चुनाव भाजपा और कांग्रेस के बीच है। तृणमूल के नेता अभिषेक बनर्जी ने तंज कसते हुए कहा है कि अगर कांग्रेस गोवा विधानसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता से बेदखल नहीं कर सकी तो कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी पी चिदंबरम को इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए।

तृणमूल ने 14 फरवरी को होने वाले चुनाव के लिए चुनाव पूर्व गठबंधन की औपचारिक पेशकश के साथ कांग्रेस के प्रदेश प्रभारी पी चिदंबरम से संपर्क किया था। और जब हम यहां पहुंचे, तो कांग्रेस और आप जैसी पार्टियों ने सवाल उठाया कि तृणमूल भाजपा विरोधी वोटों को बांटने की कोशिश कर रही है।
2017 में भाजपा ने गठबंधन करके गोवा में सरकार बनाई थी। दरअसल चिदंबरम ने तृणमूल के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की व्यूहरचना को तोड़ दिया है। प्रशांत ने गोवा में रणनीति बनायी और कांग्रेस के विधायकों को तोड़कर तृणमूल में शामिल कर लिया और कांग्रेस को कमजोर कर उसे अपनी शर्तों पर समझौते के लिए मजबूर करने की चाल चली।

इस बीच, अभिषेक तथा पार्टी सुप्रीमो ममता बनर्जी कांग्रेस पर हमले करते रहे और उसे अतीत की पार्टी और नकारा साबित करने की मुहिम पर लगे रहे। स्वाभाविक था, यह चाल कांग्रेस को गहरे जख्म पहुंचा गयी क्योंकि ममता भाजपा की भाषा बोल रही थी और उसने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया।

बाद में ममता, अभिषेक और किशोर को लगा कि दांव उल्टा पड़ गया। अंत में ममता ने सोनिया गांधी को फोन कर गठबंधन की बात कही लेकिन बात नहीं बनी। सोनिया ममता को बहुत चाहती थीं लेकिन कटुता इतनी अधिक थी कि उन्हें नकार मिला।

अब तृणमूल ने संबंध सुधारने के लिए चुनाव बाद संसद में समन्वय स्थापित करने की पहल करेगी जिसे वह पहले ठुकरा चुकी थी। यह एक शुभ और सकात्मक संदेश है, जिसका दूरगामी असर पड़ेगा।
गोवा में कमजोर दिखने वाली कांग्रेस की अपनी रणनीतियां हैं। गोवा में वह भाजपा को टक्कर दे रही है क्योंकि भाजपा गंभीर अंतर्कलह और पलायन से त्रस्त है। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर के बेटे उत्पल पर्रिकर ने विद्रोह कर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। कुछ नेता पार्टी छोड़ चुके हैं, कुछ असंतुष्ट अपने दल के उम्मीदवारों के खिलाफ काम कर सकते हैं। साभार:चाणक्य मंत्र