‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 82 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 82 वी कड़ी ..

 

सप्तमोऽध्याय – ‘ज्ञान-विज्ञान योग’

श्लोक  (१८)

यों तो उदार सब भक्त रहे पर जिसने मुझको पहिचाना,

हो गया तत्व का ज्ञान जिसे, उसको मैंने अपना माना ।

मैं मान रहा, वह मुझमें ही रह रहा भक्त, मेरा ज्ञानी,

पर भक्ति परायण रहकर नित, उसको मेरी पदवी पानी ।

 

अर्थार्थी अथवा आर्त रहे, जिज्ञासु रहे अथवा ज्ञानी,

सब भक्त रहे ये एकनिष्ठ, सबने मेरी महिमा जानी ।

मैं सर्वशक्ति सम्पन्न रहा, सर्वज्ञ, दयालु, सुहृद उनको,

आशा आकांक्षा का पूरक वे समझ रहे होते मुझको ।

 

ज्ञानी की बात निराली है, पर भक्त सभी ये प्रिय मेरे,

ये मान रहे सर्वस्व मुझे,ये जान रहे मन को मेरे ।

हर भाँति सभी आश्रय अपने, ये त्याग चुके, भजते मुझको,

हे अर्जुन अन्त समय में ये,जो भक्त रहे,पाते मुझको ।

 

मुझमें अरु मेरे भक्तों में, कोई अन्तर रहता न कभी,

उत्तम गति के ये अधिकारी, होते हैं अर्जुन भक्त सभी ।

उन्मुक्त करें जग में विचरण, ये भक्त रहे जो मुक्तात्मा,

सारे जग में दिखता है इनको, भसित होता परमात्मा ।

 

गौ वत्स, प्राण मन देह सभी, जिसके अपनी माँ में बसते,

गौ अपने आप पन्हा जाती, अपने बछड़े का मुख लख के।

वात्सल्य उमड़ता है उसका, वह उमगित दूध पिलाती है,

करती है क्षुधा शान्त उसकी, उसको परितृप्ति दिलाती है ।

 

अपना दुख दर्द दूर करने, या भौतिक लाभ कमाने को,

या बौद्धिक तृप्ति प्राप्त करने, या ज्ञान तत्व का पाने को ।

करते यदि रहे प्रार्थना हम, तो धर्माचरण किया हमने,

है यत्ल प्रार्थना प्रभु पाने,उकसाने ज्योति किया हमने ।

 

जीवन का मार्ग प्रार्थना है,सौभाग्य जगाना जीवन का,

व्यक्तित्व बनाती जो अखण्ड, जो है आत्मा की समस्वरता ।

परमात्मा का सानिध्य यही, उपलब्ध कराया करती है,

भीतर-बाहर करती प्रकाश, यों ज्योति हृदय में जलती है।

 

एकाग्रचित्तता ज्ञानी की, पूरा कर रही प्रयोजन को,

जो प्रभु का जग के लिए, रहा, जीवन में आत्म नियोजन को ।

‘भगवन् मेरी न रही कुछ भी बस पूरी हो तेरी इच्छा’,

मन वचन कर्म से तुझको मैं, अपना जीवन अर्पण करता’ ।

श्लोक  (१९)

कितने जन्मान्तर गत होते, तब जीव ज्ञान पाने पाता,

मैं सभी कारणों का कारण, ज्ञानी यह तत्त्व समझ पाता ।

मैं रहा सर्वव्यापक, मेरे शरणागत होता जब ज्ञानी,

दुर्लभ महात्मा वह ऐसा, मैं करता जिसकी अगुआनी ।

 

सारे जग में उसको केवल, दिखलाई दें बस वासुदेव,

पा तत्वज्ञान वह ज्ञानवान, भजता है केवल वासुदेव ।

यह अन्तिम जन्म रहा उसका, तत्त्वज्ञ हुआ जिसमें ज्ञानी,

दुर्लभ महात्मा वह अर्जुन, मैं करता उसकी अगुआनी ।

 

कितने ही जनम बीत जाते, तब साध कहीं पकने पाती,

जीवन जीवन की बूँद बूँद, जुड़कर मटकी को भर पाती ।

हृदयंगम करना सत्य पार्थ, यह युगों युगों का कार्य रहा,

जन्मों जन्मों तक साधक, जो इसको पाने अविराम चला।

 

अनुभव की अपनी गहराई, धीरे धीरे नपने पाती,

यह रही जटिल उलझन इसकी धीरे धीरे हटने पाती ।

हो सके सत्य का ज्ञान पूर्ण तल इसका साधक पाता है,

आध्यात्मिक शिशु के बनने में, कितना न समय लग जाता है ।

 

यह लम्बी रही प्रक्रिया जो कर पाती रुपान्तरण पूर्ण,

जो रहा प्रकृति का अवगुण्ठन, हो जाता जब वह स्वतः दूर ।

पानी से भरे हुए घट सा पानी में डूबा वह रहता,

जाती है उसकी दृष्टि जहाँ बस नारायण को ही लखता ।

 

जीवन के स्वामी वासुदेव, हैं वासुदेव सब कुछ जग के,

अविनश्वर गौरव यह उनका जो देखें हम, उनमें बस के ।

ऐसा ज्ञानी दुर्लभ अर्जुन, उसकी आत्मा होती महान,

पल भर भी नहीं भुलाता है वह योगी मुझको ज्ञानवान ।

 

अस्तित्व मनुज का नहीं कभी, परमात्मा के बिन रह सकता,

परमात्मा को अवलम्बन की, पर नहीं रही आवश्यकता ।

यह बोध जिसे हो जाता है, वह अर्पित प्रभु को हो जाता,

वह कुछ भी अपने लिए नहीं, बाकी हे पार्थ बचा पाता ।

 

अनुभूति विनम्रता की ऐसी, ऐसा विश्वास अटल मन का,

प्रभु से मिलवाता भक्तों को बनता जीवन की सार्थकता ।

भक्तों के प्रिय भगवान रहे, भगवान चाहते भक्तों को,

भक्तों में ज्ञानी भक्त रहा, सर्वाधिक चाहे वे उसको ।