मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की सातवी कड़ी ..
अध्याय- एक
-: अर्जुन विषाद योग :-
श्लोक (२१,२२,२३)
अर्जुन उवाच:-
और कृष्ण से अर्जुन ने यों किया निवेदन हे राजन,
सेनाओं के बीच हाँककर रथ ले चलिए हे भगवन ।
चाह रहा उन वीरों को जो लड़ने आये मैं देखूँ,
समरांगण में किन वीरों से लड़ना मुझको यह लेखूँ ।
क्योंकि यहाँ जो भी आए हैं सभी वीर हैं योद्धा हैं,
किससे किसका मेल बनेगा, रण के कौन पुरोधा हैं ।
शायद ये कौरव अधीर दुर्बुद्धि युद्ध को जो व्याकुल
बिना धैर्य के समरांगण में कहीं न मिट लें शीघ्र , सकुल ?
केवल लड़ने में रुचि होने से न विजय कोई पाता,
संयत शांत रहे जो रण में वही विजयश्री वर पाता ।
इतना हाल सुनाकर संजय ने फिर आगे बतलाया,
कृष्णचन्द्र ने रथ को फेरा और मध्य में पहुँचाया ।
श्लोक (२४, २५, २६, २७)
वहाँ उपस्थित भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य उसे दीखे,
और रहे राजा अनेक थे श्रेष्ठ वीर जो अवनी के ।
उत्सुक होकर लगा देखने सेना वह बारीकी से,
दूर दूर तक उसे सभी जो दीखे, अपने ही देखे ।
बोला वह, हे केशव, देखें जरा, यहाँ सब अपने हैं,
सारे के सारे गोत्रज है, गुरुजन परिजन अपने हैं ।
यह सुनकर आश्चर्य कृष्ण को, हुआ कि यह क्या सोच रहा,
लेकिन ऐसा सोच रहा, तो इसमें है कुछ सार भरा ।
फिर अर्जुन ने देखा, अपने सभी बड़ों को पूज्यों को,
मामा को देखा, मित्रों को देखा, बन्धु-बान्धवों को ।
देखा श्वसुर, निकट सम्बन्धी, आत्मीय जन वहाँ जुड़े,
लड़के, नाती, पोते देखे जो लड़ने को वहाँ खड़े ।
जिन पर था उपकार किया, संकट में जिनकी रक्षा की,
छोटे बड़े सगोत्री दिए दिखाई रण में खड़े सभी ।
यह सब देखा अर्जुन ने तो हुआ बहुत व्याकुल मन में,
सबके सब अपने ही हैं, जो उतरे हैं लड़ने रन में ।
रहे स्वगोत्री दोनों दल के, करुणा से उर भर आया,
पहिले अर्जुन वीर पुरुष था, इधर दूसरा हो आया ।
वीर प्रवृत्ति न जाने कहाँ विलीन हुई थी अर्जुन की ?
हालत बड़ी विचित्र हुई थी, कुटुम्ब देखकर अर्जुन की ।
मानों वीर प्रवृत्ति हुई अपमानित कि घर छोड़ गई,
ज्यों कुलवन्ती नारी से न दखल पराई सही गई ।
अथवा विषयी पुरुष मोह में पर-नारी के पड़ जाये,
बँधे पाश में उसके ऐसे, गृह लक्ष्मी को बिसराये !
अथवा रिद्धि-सिद्धियाँ पाकर भ्रमित बुद्धि जन वैरागी,
भूल चुके वैराग्य बने अरु जग-प्रपंच का अनुरागी ।
ऐसे ही अर्जुन का अन्तः करण दया से भर आया,
दया मोह से ग्रसित पार्थ ने, अपने को विह्वल पाया । क्रमशः ….