अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’
श्लोक (२४-२५)
समदृष्टि रखे वह आत्मनिष्ठ, सम हो जिसको मानापमान,
निन्दा-स्तुति, प्रिय अप्रिय जिसे, हो शत्रु-मित्र दोनों समान ।
व्यवहार मित्र से जैसा हो, वैसा ही अरि के साथ करे,
गुण ही गुण में करते वर्तन, वह नहीं कर्म में लिप्त रहे ।
जिसने सकाम सब कर्मों का, कर दिया त्याग वह गुणातीत,
कर रहा कर्म अपने सारे, पर रहा कर्म से वह अतीत ।
माया-प्रभाव से मुक्ति हेतु, करना न पड़े उसको प्रयास,
वह भोग त्याग, इच्छा के बिन, मानो असंग है कार्यवाह ।
समझे सुख दुख को जो समान, अपनी आत्मा में जो बसता,
मणि हो अथवा हो माटी वह, दोनों को एक दृष्टि लखता ।
प्रिय-अप्रिय वस्तुओं में समान, जिसका मन सुस्थिर रहे सदा,
हो यशोगान या परिनिन्दा, उसने दोनों को सम समझा।
मानापमान सम समझे जो, कोई न पराया या अपना,
कोई न मीत अथवा दुश्मन, जग जीवन जिसको ज्यों सपना।
कर्मो का जो परित्याग करे, वह उठा गुणों से यह मानो,
अर्जुन आसक्ति न जिसमें हो, उसको तुम गुणातीत जानो ।
भीतर-बाहर ज्यों कपड़े के, बस रहा सूत कुछ अन्य नहीं,
ज्ञानी जग के भीतर-बाहर, देखे ईश्वर को सभी कहीं ।
कोई न दशा विपरीत लगे, वह आत्मरुप में करे रमण,
हो हर्ष-विषाद समान उसे, श्री हरि के वह करता दर्शन ।
ज्यों भुने बीज में फिर अंकुर, आते न कभी, सौ यत्न करो,
उसकी न भंग होती समता, सम्मान करो या मान हरो ।
यश-कीर्ति मिले, सुख भोग मिले, ऐसी न कभी करता इच्छा,
जो सहज दैव से प्राप्त उसे, वह उसका ही सेवन करता । क्रमशः….