‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 171 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 171 वी कड़ी ….

अध्याय चौदह – ‘सब बस्तुओं और प्राणियों का रहस्य मय जनक’

श्लोक  (२४-२५)

समदृष्टि रखे वह आत्मनिष्ठ, सम हो जिसको मानापमान,

निन्दा-स्तुति, प्रिय अप्रिय जिसे, हो शत्रु-मित्र दोनों समान ।

व्यवहार मित्र से जैसा हो, वैसा ही अरि के साथ करे,

गुण ही गुण में करते वर्तन, वह नहीं कर्म में लिप्त रहे ।

 

जिसने सकाम सब कर्मों का, कर दिया त्याग वह गुणातीत,

कर रहा कर्म अपने सारे, पर रहा कर्म से वह अतीत ।

माया-प्रभाव से मुक्ति हेतु, करना न पड़े उसको प्रयास,

वह भोग त्याग, इच्छा के बिन, मानो असंग है कार्यवाह ।

 

समझे सुख दुख को जो समान, अपनी आत्मा में जो बसता,

मणि हो अथवा हो माटी वह, दोनों को एक दृष्टि लखता ।

प्रिय-अप्रिय वस्तुओं में समान, जिसका मन सुस्थिर रहे सदा,

हो यशोगान या परिनिन्दा, उसने दोनों को सम समझा।

 

मानापमान सम समझे जो, कोई न पराया या अपना,

कोई न मीत अथवा दुश्मन, जग जीवन जिसको ज्यों सपना।

कर्मो का जो परित्याग करे, वह उठा गुणों से यह मानो,

अर्जुन आसक्ति न जिसमें हो, उसको तुम गुणातीत जानो ।

 

भीतर-बाहर ज्यों कपड़े के, बस रहा सूत कुछ अन्य नहीं,

ज्ञानी जग के भीतर-बाहर, देखे ईश्वर को सभी कहीं ।

कोई न दशा विपरीत लगे, वह आत्मरुप में करे रमण,

हो हर्ष-विषाद समान उसे, श्री हरि के वह करता दर्शन ।

 

ज्यों भुने बीज में फिर अंकुर, आते न कभी, सौ यत्न करो,

उसकी न भंग होती समता, सम्मान करो या मान हरो ।

यश-कीर्ति मिले, सुख भोग मिले, ऐसी न कभी करता इच्छा,

जो सहज दैव से प्राप्त उसे, वह उसका ही सेवन करता । क्रमशः….