द्वादशोऽध्यायः – ‘भक्तियोग’
‘व्यक्तिक भगवान की पूजा, परमब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है’
श्लोक (६-७)
लेकिन अर्जुन सम्पूर्ण कर्म, जो भक्त मुझे अर्पण करके,
साधन करते हैं भक्ति योग, मुझसे अनन्य नाता रखके ।
एकान्त भाव से मेरा ही, जो नित्य निरन्तर करें भजन,
लवलीन रहा करता मुझमें, जिन भक्त जनों का संयत मन ।
उन भक्त जनों का हे अर्जुन, उद्धार किया करता हूँ मैं,
जग मृत्यु रुप सागर अपार, भक्तों को पार कराता मैं ।
रखता हूँ उनका ध्यान सदा, अविलम्ब सिन्धु वे पार करें,
यह भक्ति योग है सर्वोत्तम, मम धाम भक्त जन प्राप्त करें ।
अपने सब कर्मों का मुझको, जो भक्त समर्पण कर देते,
मुझमें एकाग्र चित्त रखते, जो भक्ति सहित पूजन करते ।
केन्द्रित मुझमें रखते विचार, मैं सागर पार करा देता,
जो घिरा मृत्यु से जग-सागर, उससे उद्धार करा देता
मुझ सगुण रूप परमात्मा को जो भक्ति योग से भजते हैं,
अर्पण कर अपने कर्मों को मेरे पारायण रहते हैं ।
अर्जुन मैं अपने भक्तों का, तत्पर रह भार उठाता हूँ
संसार- मृत्यु सागर से मैं उनको उस पार पठाता हूँ ।
प्रभु रक्षक है उद्धारक हैं. मन में आस्था हो, श्रद्धा हो,
यह मार्ग भक्ति का रहा सुगम, वैराग्य न जहाँ सँवरता हो ।
उपयुक्त उन्हें यह मार्ग अधिक, ऊबा न जगत से जिनका मन,
आसक्त नहीं जग में इतना, जग को न छोड़ने पाए मन ।
अपने स्वभाव पर आधारित हम मार्ग कौन सा अपनायें,
अपनायें हम प्रवृत्ति मार्ग, या मार्ग निवृत्ति का अपनायें ।
कर्तव्य कर्म का पालन कर, पालें हम अपना कर्मयोग,
अथवा सन्यास मार्ग पर चल, चरितार्थ करें हम ज्ञानयोग ।
श्लोक (८,९)
मन मुझ में एक निष्ठ करके केवल मेरा ही कर चिन्तन,
सब कार्य बुद्धि के हे अर्जुन, करता चल तू मुझको अर्पण ।
तेरा निवास मुझमें होगा, इसमें रंचक सन्देह न कर,
तदनन्तर होगा प्राप्त मुझे, तू एकनिष्ठ हो मुझको भर ।
मुझमें ही मन को लगा पार्थ, मुझ में ही लगा बुद्धि अपनी,
तेरा निवास मुझमें होगा, कर एक रूप गति मति अपनी ।
मन और बुद्धिलय होने पर, लय होगा मुझमें अहंकार,
सन्देह न कर मुझ जैसा तू भी, हो सकता है निर्विकार
यदि मुझमें चित्त लगाने में, असमर्थ स्वयं को पाता है,
अभ्यास योग का पालन कर, यह भी मुझ तक पहुँचाता है ।
आध्यात्मिक सतह न मिलने पर अभ्यास किया जाता अर्जुन,
परमात्मा में धीरे धीरे, थिर होने लगता है यह मन ।
मन और बुद्धि के साथ चित्त, यदि मुझमें नहीं लगा पाता,
तो करता चल अभ्यास योग, यह सफल एक दिन हो जाता।
शरदकाल में नदियों का जल, हो जाता है निर्मल अर्जुन,
धीरे धीरे सुख का अनुभव, करने लगता है भटका मन ।
यदि अचल रुप से अपना मन, एकाग्र न मुझमें कर पाए,
तो भक्ति योग का पालन कर, इसलिए कि सक्षम बन जाए।
मन में तब मुझको पाने की, जागृत होगी तुझमें इच्छा,
जो प्राप्त करा देती मुझको, पायेगा वह प्रेमावस्था । क्रमशः….