‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 133 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 133 वी कड़ी ..

                       द्वादशोऽध्यायः – ‘भक्तियोग’

 ‘व्यक्तिक भगवान की पूजा, परमब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है’

श्लोक  (३-४)

पर वे भी जो इनके सिवाय, आराधन निर्गुण का करते,

अव्यक्त अनिर्वचनीय नित्य, जो उसका आराधन करते ।

कूटस्थ अचल सर्वत्र व्याप्त, वह तत्व बुद्धि से परे रहा,

वह रहा इन्द्रियातीत मगर, निर्गुण साधक ने उसे भजा ।

 

पाला जिसने इन्द्रिय संयम, मन जिसके वशीभूत रहता,

समदृष्टि रखे, समभाव रखे, जो योगी परहित दुख सहता ।

जो प्राणिमात्र का हित चाहे, संलग्न करे हित सम्बर्द्धन,

वे भी योगी हैं परम सिद्ध, वे मुझे प्राप्त होते अर्जुन ।

 

पर अपने ज्ञान चक्षुओं से, निर्गुण स्वरुप को पहिचानें,

शब्दों भावों में अंके नहीं, वे उस स्वरुप में अवगाहें ।

सर्वत्र व्याप्त उसको देखें, मन बुद्धि परे जा नित्य रहा,

समभाव रहा, ध्रुव अचल रहा, कूटस्थ रहा अव्यक्त रहा ।

 

सबके हित में रत रहते जो, समभाव सभी के लिए रखें,

वशवर्ती रखें इन्द्रियों को, मुक्त ब्रह्म रुप को सदा भजें ।

सम्पूर्ण जगत का करें भला, कर ध्यान भजन मेरा अर्जुन,

वे योगी प्राप्त मुझे होते, निर्गुण का कर आराधन ।

 

लेकिन उपासना करते जो, उसकी जो रहा अचिन्त्यनीय,

सब जगह रहा, गति रहित रहा, सम रहा, रहा अनिदेशनीय ।

इन्द्रिय संयम, समचित रखें, जीवों के प्रति कल्याण भाव,

वे मुझकों पाते हैं अर्जुन, रखते हैं जो मुझसे लगाव ।

 

कल्याण प्राणियों का करके, आनन्दित होते जा मन में,

विश्वात्मा से होकर अभिन्न रहते हैं वे जग-जीवन में ।

करुणा विनम्रता प्रेम भाव, उनके हृदय में लहराते,

मानवता की सेवा करते, मदरुप भक्त वे हो जाते ।

श्लोक  (५)

जो होते ज्ञानी भक्त पार्थ वे निराकार को भजते हैं,

जिसका कोई आकार नहीं, सर्वत्र व्याप्त को भजते हैं ।

पाने का नहीं उपाय मगर, उसको भजते उसका बनकर,

जो होता नहीं कभी दूषित, जीवन के दोषों को हरकर ।

 

पर परम सत्य के भक्त जिन्हें, निर्गुण स्वरुप की चाह रही,

पारमार्थिक उन्नति पाने में, अपनी न जिन्हें परवाह रही ।

सविशेष रुष्ट श्रम के द्वारा, वे सिद्धि प्राप्त करने पाते,

निगुर्ण का दुष्कर मार्ग कि जन देहाभिमान न तज पाते ।

 

निर्गुण का तत्व गहन अर्जुन, साधारण मनुज न जान सके,

इसको जाने, जो बुद्धि शुद्ध, सुस्थिर, संयत अरु सूक्ष्म रखे ।

देहाभिमान जो त्याग सके, दृढ़ निश्चय हो दृढ़ हो आसन,

दुष्तर दुख की गति प्राप्त इसे, श्रम साध्य रहे इसके साधन ।

 

जिनके विचार अव्यक्त ब्रह्म को पाने में संलग्न रहे,

उनके जितने प्रतिबिम्ब बने, वे सब लेकर आधार बने ।

जो निराकार उसकी छवि को, पा लेना होता सरल नहीं,

तनधारी द्वारा अतनु तत्व की प्राप्ति हमेशा कठिन रही ।

 

आत्मा जो रहा व्यक्तियों की, जो रहा वस्तुओं की आत्मा,

है सरल उसे पूजा द्वारा, अपने जीवन में पा जाना ।

लेकिन जो लोकातीत तत्व, उसके पाने में कठिनाई,

मन कैसे ग्रहण करे उसको, जिसका न रुप दे दिखलाई। क्रमशः….