द्वादशोऽध्यायः – ‘भक्तियोग’
‘व्यक्तिक भगवान की पूजा, परमब्रह्म की उपासना की अपेक्षा अधिक अच्छी है’
श्लोक (३-४)
पर वे भी जो इनके सिवाय, आराधन निर्गुण का करते,
अव्यक्त अनिर्वचनीय नित्य, जो उसका आराधन करते ।
कूटस्थ अचल सर्वत्र व्याप्त, वह तत्व बुद्धि से परे रहा,
वह रहा इन्द्रियातीत मगर, निर्गुण साधक ने उसे भजा ।
पाला जिसने इन्द्रिय संयम, मन जिसके वशीभूत रहता,
समदृष्टि रखे, समभाव रखे, जो योगी परहित दुख सहता ।
जो प्राणिमात्र का हित चाहे, संलग्न करे हित सम्बर्द्धन,
वे भी योगी हैं परम सिद्ध, वे मुझे प्राप्त होते अर्जुन ।
पर अपने ज्ञान चक्षुओं से, निर्गुण स्वरुप को पहिचानें,
शब्दों भावों में अंके नहीं, वे उस स्वरुप में अवगाहें ।
सर्वत्र व्याप्त उसको देखें, मन बुद्धि परे जा नित्य रहा,
समभाव रहा, ध्रुव अचल रहा, कूटस्थ रहा अव्यक्त रहा ।
सबके हित में रत रहते जो, समभाव सभी के लिए रखें,
वशवर्ती रखें इन्द्रियों को, मुक्त ब्रह्म रुप को सदा भजें ।
सम्पूर्ण जगत का करें भला, कर ध्यान भजन मेरा अर्जुन,
वे योगी प्राप्त मुझे होते, निर्गुण का कर आराधन ।
लेकिन उपासना करते जो, उसकी जो रहा अचिन्त्यनीय,
सब जगह रहा, गति रहित रहा, सम रहा, रहा अनिदेशनीय ।
इन्द्रिय संयम, समचित रखें, जीवों के प्रति कल्याण भाव,
वे मुझकों पाते हैं अर्जुन, रखते हैं जो मुझसे लगाव ।
कल्याण प्राणियों का करके, आनन्दित होते जा मन में,
विश्वात्मा से होकर अभिन्न रहते हैं वे जग-जीवन में ।
करुणा विनम्रता प्रेम भाव, उनके हृदय में लहराते,
मानवता की सेवा करते, मदरुप भक्त वे हो जाते ।
श्लोक (५)
जो होते ज्ञानी भक्त पार्थ वे निराकार को भजते हैं,
जिसका कोई आकार नहीं, सर्वत्र व्याप्त को भजते हैं ।
पाने का नहीं उपाय मगर, उसको भजते उसका बनकर,
जो होता नहीं कभी दूषित, जीवन के दोषों को हरकर ।
पर परम सत्य के भक्त जिन्हें, निर्गुण स्वरुप की चाह रही,
पारमार्थिक उन्नति पाने में, अपनी न जिन्हें परवाह रही ।
सविशेष रुष्ट श्रम के द्वारा, वे सिद्धि प्राप्त करने पाते,
निगुर्ण का दुष्कर मार्ग कि जन देहाभिमान न तज पाते ।
निर्गुण का तत्व गहन अर्जुन, साधारण मनुज न जान सके,
इसको जाने, जो बुद्धि शुद्ध, सुस्थिर, संयत अरु सूक्ष्म रखे ।
देहाभिमान जो त्याग सके, दृढ़ निश्चय हो दृढ़ हो आसन,
दुष्तर दुख की गति प्राप्त इसे, श्रम साध्य रहे इसके साधन ।
जिनके विचार अव्यक्त ब्रह्म को पाने में संलग्न रहे,
उनके जितने प्रतिबिम्ब बने, वे सब लेकर आधार बने ।
जो निराकार उसकी छवि को, पा लेना होता सरल नहीं,
तनधारी द्वारा अतनु तत्व की प्राप्ति हमेशा कठिन रही ।
आत्मा जो रहा व्यक्तियों की, जो रहा वस्तुओं की आत्मा,
है सरल उसे पूजा द्वारा, अपने जीवन में पा जाना ।
लेकिन जो लोकातीत तत्व, उसके पाने में कठिनाई,
मन कैसे ग्रहण करे उसको, जिसका न रुप दे दिखलाई। क्रमशः….