‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 113 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 113 वी कड़ी ..

                        दशमोऽध्याय – ‘विभूति योग’

अध्याय दस – ‘परमात्मा सबका मूल है’  ‘उसे जान लेना सबकुछ जान लेना है’

श्लोक   (७)

बिखरा अदभुत ऐश्वर्य सकल, बिखरी है योग शक्ति मेरी,

असमोर्ध्य तत्व का बोध जिसे, जानी जिसने महिमा मेरी ।

यह रहा सहज स्वाभाविक ही, आता वह मेरी शरण पार्थ,

हो भक्ति परायण वह अनन्य, तत्वार्थ प्राप्त करता यथार्थ ।

 

मेरा ऐश्वर्य परम अर्जुन, मेरी विभूति को जो जाने,

है योग शक्ति मेरी कैसी, जो उसे तत्वतः पहिचाने ।

जुड़ जाता भक्ति योग से वह, इसमें कोई सन्देह नहीं,

सुस्थिर मति मुझमें हो जाती, मन नहीं भटकता और कहीं ।

 

ग्यारह विभूतियाँ बीस भाव, ब्रह्मा से लेकर चीटी तक,

जो दृश्य-अदृश्य जगत सारा, इसका वैभव का मुझसे उद्भव ।

मेरा जो सत्य स्वरुप लखे, हो जाता उसको ज्ञान सही,

स्पन्दित मेरे प्राणों से, दिखती है उसको सकल मही ।

 

एकत्व ब्रह्म से कर लेता, हर कार्य रहे मुझको अर्पित,

मन विचलित होता नहीं कभी, सम रहे, न दुनिया या हर्षित ।

पा जाता ऐसा मार्ग जहाँ, मुझसे न भिन्न वह रह पाता,

मेरी प्रतिकृति बनकर जीता, मरकर वह मुझमें मिल जाता

श्लोक  (८)

मुझ वासुदेव का अगजग में, होता रहता उसको दर्शन,

सारे जग का मैं प्रभव रहा, अनुभव यह करता उसका मन ।

धारण कर श्रद्धा और भक्ति, पल प्रतिपल मुझको भजता है,

हो जाता असह वियोग अगर, वह मुझको कभी बिसरता है।

 

लहरें पानी की उपज रहीं पानी ही लहरों का जीवन,

मेरे सिवाय कुछ अन्य नहीं, मैं प्राण रहा मैं ही यह तन ।

आकाश रुप बनकर रहता, जिस तरह वायु व्यापक नभ में,

मैं देश काल या वर्तमान, बनकर रहता सारे जग में ।

 

यह सारी सृष्टि चले मुझसे, मैं वस्तुमात्र का जनक रहा,

ज्ञानी पुरुषों के जीवन में, यह सत्य रुप लेकर उतरा ।

हर प्राणी में दर्शन प्रभु के करता रहता ऐसा ज्ञानी,

सच्चा यह उसका भक्तियोग, भजता रहता मुझको ज्ञानी ।

 

यह प्राकृत जग बैकुण्ठ धाम, इन दोनों का हूँ मैं कारण,

उत्पन्न सभी कुछ मुझसे हैं, संचालित है मुझसे जीवन ।

इस तरह तत्व से समझ मुझे, मेरा करते हैं भक्त भजन,

प्रेमापूरित अन्तस लेकर ले, विनतभाव, श्रद्धामय मन ।

श्लोक  (९)

ये परम भक्त मेरे अर्जुन, करते रहते मेरा चिन्तन,

मेरी सेवा करते रहते, उनका मुझमें ही रहा रमण ।

वार्ता करते, महिमा गाते, अतुलित आनन्द मनाते वे,

महिमा का करके बोध स्वयं, हुलसित, पुलकित हो जाते वे ।

 

मुझमें मन सदा लगा रहता, मुझमें ही प्राणों का अर्पण,

मेरे प्रभाव की ही चर्चा, मेरे अनुभव का सहज कथन ।

आनन्द मग्न, सन्तुष्ट मना, मुझ वासुदेव में रमते वे,

मगत प्राणा वे मच्चित्ता, अनुभव से जुड़ें परस्पर वे

 

उनके विचार मुझमें थमते, उनका जीवन अर्पित मुझको,

आपस में मेरी बात करें, आनन्द बहुत आता उनको ।

लहराता आत्मबोध जैसे, आकूल सरोवर भरने पर,

दो ज्ञानी मिलें सरोवर सम, हो जाते केवल जल ही जल ।

श्लोक  (१०)

जो मुझे प्रेम से भजते हैं, करते रहते जो सतत ध्यान,

आनंदित मेरी चर्चा में, सन्तुष्ट भाव जिनका अकाम. ।

करता हूँ शक्ति प्रदान उन्हें, वे तत्व-रुप पहिचान सकें,

क्या निराकार, क्या सगुण रुप, यह बुद्धियोग से जान सकें ।

 

मुझको ही होते पार्थ प्राप्त, देता मैं ऐसा योग उन्हें,

एकाग्र बुद्धि करता उनकी, जो पा लेती है शीघ्र मुझे ।

नश्वर परिवर्तनशील जगत, इसमें वह मुझको लख लेता,

कर लेता सुस्थितर चित्त आप, फिर कहीं न ध्यान अपना देता ।

 

ये भक्ति परायण भक्त सदा, सच्चे मन से गुणगान करें,

हृदय में प्रेम भाव लेकर, ये भक्त निरन्तर मुझे भजें ।

मैं इनकी बुद्धि विमल करता, देता हूँ इनको बुद्धियोग,

ये कर्म निरत पर मुक्त रहे, इनको न सताता फिर वियोग । क्रमशः…