मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 11 कड़ी ..
अध्याय- एक
-: अर्जुन विषाद योग :-
श्लोक (४१)
घर में घुस आता अधर्म, तो भले-बुरे का भेद मिटे,
क्या करणीय अकरणीय, क्या कोई नहीं विचार करे ।
दीपक होते हुए, भटकने लगता मनुज अंधेरे में,
गिरता ठोकर खाता, उठकर चलता सीमित घेरे में ।
जब कुल का क्षय होता, होता लुप्त धर्म कुल का सारा,
केवल पाप-पाप का केवल होता कुल में पैसारा ।
रहता कुछ प्रतिबंध नहीं तब मन पर और इन्द्रियों पर,
बन रह जाता है जीवन तब केवल अघ का, अघ का घर ।
पापाचरण ग्रस्त हो जाती है कुलीन घर की नारी,
वर्ण – व्यवस्था खण्डित होती, टूट-फूट जाती सारी ।
जाति धर्म जड़ से मिट जाता केवल स्वेच्छाचार बढ़े,
उत्तम कुल की ललना संगत अधम पुरुष के साथ करे ।
बढ़ता है व्यभिचार, वर्ण संकर पैदा होने लगते,
जाति धर्म च्युत नर-नारी सब अपनी मर्यादा तजते ।
बलि पर ज्यों कौए मंडराते, पाप कुलों पर मंडराते,
हे यदुनन्दन वर्ण संकरों से कुल पर कुल भर जाते ।
श्लोक (४२)
फिर उस कुल को कुल हन्ता को दोनों को ही नरक मिले,
और पितर जो रहे स्वर्ग में वे भी उनके साथ गिरे ।
काटे साँप पैर में लेकिन सिर तक उसका जहर चढ़े,
पितरों पर भी कुल हन्ता की दुष्करनी का असर पड़े ।
रुक जाती है वृद्धि वंश की, पिण्डोदक रुक जाने से,
पितर नरक में फँस रह जाते, तर्पण हव्य न पाने से ।
हो पाता उद्धार नहीं पितरों का, होता नहीं जतन,
कुलघाती कुल का, कर देता नष्ट-भ्रष्ट सारा जीवन ।
श्लोक (४३, ४४, ४५)
होते लोकाचार नष्ट, हे कृष्ण दोष से दोष बढ़े,
लगे आग इस घर में, वह घर आग पकड़कर साथ चले।
दोष अनेक जहां आ जाते फिर उसका उद्धार कहाँ ?
नरक यातना से उस कुल को मिलती है फिर मुक्ति कहाँ ?
अध: पतन कुल क्षय के कारण रहा भयंकर हे माधव,
रही कल्पना भीषण क्या उसको सह सकता यह हृदय ?
अपने कानों से यह हमने सुना, इसी को मान रहे,
नाशवान क्या इस शरीर के सुख का केवल ध्यान रहे ?
बतलाएँ प्रभु आप कहाँ है उचित राज्य की अभिलाषा ?
यह क्या छोटा पाप कि हमने गुरुओं को दुश्मन आँका ?
हाय कृष्ण हम बुद्धिमान यह महापाप करने आये,
सुख भोग लालसा के लालच, में स्वजनों का वध करने आये ।
श्लोक (४६, ४७)
हे कृष्ण मुझे लगता है अपने शस्त्र त्याग निस्शस्त्र बनूँ ,
यदि वाण चलायें वे मुझपर तो उनके सभी प्रहार सहूँ।
ऐसा करने में अगर मृत्यु भी आए, वरण करूँ उसका,
लेकिन स्वजनों के वध का पाप करूँ, ऐसी न रही इच्छा ।
धृतराष्ट्र सुतों के हाथों से मरना भी होगा क्षेमतरम,
मुझ शस्त्र रहित मुझ युद्ध विरत का यदि वे करें शिरच्छेदन ।
संजय उवाच:-
संजय बोले, उद्विग्न शोक से भरा हुआ मन ले,राजन !
तज धनुष वाण रथ के पिछले हिस्से में जा बैठा अर्जुन ।
ज्यों राजपुत्र पदच्युत कोई, मुख म्लान हुआ, आभाविहीन,
या सूर्य ग्रहण में ग्रसित राहू से सूर्य हुआ जैसे मलीन ।
या महासिद्धि का साधक तपसी कोई भूला हो भ्रम में,
या उदासीनता छोड़ न कुछ रह गया विषाद भरे मन में।