‘गीता ज्ञान प्रभा’ धारावाहिक .. 10

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा धारावाहिक की 10 वी कड़ी ..

अध्याय- एक

                 -:  अर्जुन विषाद योग :-

श्लोक (३५)

भले मार डालें वे मुझको उनसे नहीं लडूंगा मैं,

कारण कुछ भी रहे युद्ध अब उनसे नहीं करूँगा मैं ।

मिले अखण्ड राज्य त्रिभुवन का, मैं उसको ठुकरा दूँगा,

फिर क्या इस पृथ्वी के सुख को मैं उनकी जानें लूँगा?

 

अनुचित होगा कृत्य हमारा नहीं पाप धुल पाएँगे,

हुए तो कैसे हम आदर समाज का पाएँगे ?

मन में ग्लानि रहेगी गहरी सिर न उठाने पाऊँगा,

तुम्हीं कहो केशव क्या अपनी आँख मिलाने पाऊँगा ?

श्लोक (३६)

वध कर इन आतताइयों का, कोई सुख पाऊँगा ?

नाना पाप लगेंगे मुझको, कुल हन्ता कहलाऊँगा,

निकल जाएँगे आप हाथ से मेरे, केशव सच कहना ।

क्या सम्भव है कभी आपको पापी के संग में रहना ?

 

आग बाग में लगती है तो कोयल वहाँ न रुक पाती,

अथवा कीचड़ भरे सरोवर को मरालिनी तज जाती ।

देव, पुण्य का अंश न होगा बाकी जिस दिन मेरे संग,

आप कृपा से अपनी मुझको वन्चित कर देंगे उस क्षण ।

श्लोक (३७)

स्वजनों के हन्ता को केशव भला कौन सुख मिल पाता ?

मारें हम धृतराष्ट्र-सुतों को उचित न मैं इसको पाता ।

अब न युद्ध की इच्छा मन में, शस्त्र तजूँगा मैं माधव,

निन्दनीय यह कार्य रहा, इसको न करूँगा मैं माधव ।

 

आप छोड़कर चले गये तो क्या महत्व हम पायेंगे ?

सोच विदीर्ण हृदय होता है, कितना दुख हम पायेंगे ?

नाश कौरवों का करके हम राज्य करें क्या रक्त सना ?

माधव बात न होने की यह, मन यह ऐसा नहीं बना ।

श्लोक (३८, ३९)

ये कौरव अभिमान पगे माना उद्यत है लड़ने को,

लेकिन हम भी सजग रहे अपना हित रक्षित रखने को ।

जानबूझकर विष पीने की करें कृष्ण क्यों नादानी ?

क्यों न दूर हट जायें, अग्नि प्रबल हो, पास न हो पानी ।

 

देख नहीं पाते अनर्थ, अनहित वे देख नहीं पाते,

पड़े लोभ का पर्दा आँखों पर, वे अन्धे हो जाते ।

जिनका नष्ट विवेक नाश को यदि वे देख नहीं पायें,

तो क्या हमको उचित कि हम भी राह उन्हीं की अपनायें ?

 

करके हमें विचार भलाई का पथ अपनाना होगा,

नहीं शेर से भिड़ना उसके पथ से हट जाना होगा ।

दीखे यदि सम्मुख प्रकाश तो अन्धकूप में क्यों जायें ?

रुक सकता यदि दोष रोकने उसे न क्यों सम्मुख आयें ?

श्लोक (४०)

आगे अर्जुन लगा सुनाने पाप प्रबल होता कितना,

कुल का नाश अगर होता तो धर्मक्षीण होता कितना ।

हे केशव होता कुल क्षय तो धर्मनाश होता कुल का,

धर्म नाश से पाप फैलकर लाता पतन सकल कुल का ।

पैदा होती अग्नि काठ से, हुआ काठ का जब घर्षण,

सारा काठ भस्म हो जाता, हो जाती जब तीव्र अगन ।

एक गोत्र के लोग, द्वेष के कारण जब जलने लगते.

तरह-तरह के घात और प्रतिघात बीच उनके चलते ।

 

द्वेषानल यह पूरे कुल का रचने लगता है विनाश,

कुल का क्षय होने से होने लगता है स्वधर्म का नाश ।

धर्म सनातन मिटने लगता, पैर पाप के बढ़ते हैं,

हो जाता कुल का विनाश बस पापाचार उभरते हैं । श्लोक (४१) क्रमशः ….