एकादशोऽध्यायः ‘विश्व रूप दर्शन योग’
अध्याय ग्यारह – ‘भगवान का दिव्य रूपान्तर’
श्लोक (९)
संजय उवाच:-
संजय ने कहा कि हे राजन, अर्जुन को देकर दिव्य दृष्टि,
भगवन कृष्ण ने दिखलाया, वह विश्व रुप उसका अभीष्ठ ।
जो दिव्य अलौकिक अगम रहा, एकात्म रुप ऐश्वर्य परम,
सबको न रहा जो दर्शनीय, उसका ही करवाया दर्शन ।
हरि रहे महायोगेश्वर वे, सामर्थ्य-शक्ति अद्भुत उनकी,
दुख पापों को हरने वाले, मिल पाती थाह नहीं उनकी ।
जो रुप दिखाया उसको, बस, परमेश्वर ही दिखला सकता,
अति दिव्य रहा, तेजोमय वह, वह लौकिक कहा न जा सकता
श्लोक (१०)
उस परमेदव परमेश्वर का, अर्जुन ने देखा विश्वरुप,
जिसके आनन थे अनगिनती, अनगिनती नेत्र विराट रुप ।
परिधान विविध अति दिव्य रहे, अति दिव्य देह के आभूषण,
दिव्यात्र उठाये हाथों में, विस्तार अमित अदभुत दर्शन ।
मुख अदभुत और अलौकिक भी कितने ही अर्जुन ने देखे,
कितने ही सौम्य अलंकृत मुख, दीखे उसको उसके लेखे ।,
कितने ही नेत्र भौंह पलकें, कितने ही पग सिरमुकुट दण्ड,
कितने ही शोभित अलंकार, कितने कर में आयुध प्रचण्ड ।
पृथ्वी के और स्वर्ग के सब, प्राणी अति दिव्य दिखे उसको,
ज्यों एक दिव्यता का घेरा, धारण करके रखता सबको ।
रुपान्तर दिव्य कृष्ण का यह, विस्मय से मन को भर देता,
भावों को व्यक्त न कर पाता, शब्दों का साथ नहीं मिलता ।
श्लोक (११)
मालायें दिव्य किये धारण, उपलिप्त कलेवर सौरभ से,
सब ओर किए वे मुख अपना, दर्शक को अचरज से भरते ।
कर पग मुख की न रही सीमा, परमोज्जवल, व्यापक रुप दिव्य,
भगवन्त कृपा निरवधि जिस पर, वह ही लख पाता रुप दिव्य ।
आश्चर्य चकित करने वाला, राजन यह रहा विराट रुप,
मुख, नेत्र, शस्त्र अरु आभूषण, सब उपजाते विस्मय अकूत ।
मालायें, वस्त्र, गन्ध लेपन, ये सब कौतुक से भरे हुए,
भगवान कृष्ण को अर्जुन ने, देखा विस्मय से ठगे हुए,
श्लोक (१२)
जो विश्वरुप प्रभु से निकले, वह तेज अनिर्वचनीय रहा,
उसका न भान होने पाता, शब्दों अर्थो में नहीं बंधा
यदि कोटिक सूर्य इकट्ठे हों, ऊगें मिलकर सब एक साथ,
वह भी न कदाचित वैसा हो, जैसा होता विभु का प्रकाश ।
सूर्यो का तेज रहा भौतिक, यह सीमित रहा, अनित्य रहा,
लेकिन विराट प्रभु का प्रकाश, वह दिव्य अलौकिक नित्य रहा।
सूरज होता जब तीव्र अधिक, तो आग बरसने लगती है,
लेकिन परमात्म तेज में आभा रहती शान्ति सरसती है ।
श्लोक (१३)
उस एक जगह पर अर्जुन ने, देखा ब्रहाण्ड जगत सारा,
होकर विभक्त उसके सम्मुख, अवतरित हुआ था जो सारा ।
भगवान कृष्ण के तन में ही ब्रहाण्ड सकल उसने देखे,
मृण्मय, हिरण्यमय, मणिमय भी, अति दीर्घ, सूक्ष्म अति, सब देखे ।
वह वर्ग भोगने वाला जो, वह सामग्री जो भोग्य रही,
वह जगह भोग का आश्रय जो, जिनकी कोई गणना न रही ।
क्या देव-मनुज, क्या पशु-पक्षीं, क्या कीट, मीन, तरु, पात -फूल,
क्या धरा, स्वर्ग, पाताल, लोक, बहु विविध वस्तुएँ विविध कूल ।
इन सबसे भरा विश्व सारा, ऐसे ब्रह्माण्ड अनेक राजन,
अर्जुन ने उन सबको देखा, योगेश्वर के तन में राजन ।
तन के बस एक अंश में ही, उभरी यह विश्वरुप झाँकी,
इसकी महिमा का पार नहीं, यह शब्दों से न गई आँकी
श्लोक (१४)
दर्शन कर दिव्य रुप प्रभु का, अर्जुन में जागा भक्तिभाव,
श्रीकृष्ण, सखा था जिनका वह, उनके प्रति बदला हृदयभाव ।
अद्भुत रस का उन्मेष हुआ, विस्मयविष्ट वह पुलकित तन,
आपूरित भक्ति, झुकाए सिर, कर जोर विनय करता अर्जुन ।
वह विश्वरुप जाज्वल्यमान, पुलकित शरीर उसको निहार,
आश्चर्य चकित श्रद्धा विनयित, कर जोर करे अर्जुन विचार ।
मैं मित्र समझता था जिनको, ये साक्षात परमेश्वर हैं,
मैं तुच्छ जीव इनके आगे, ये कितने सहृदय वत्सल हैं।
उमड़ाया भक्तिभाव मन में, कर चले स्तवन तब अर्जुन,
प्रभु के चरणों में टिका दिया, अपना विनम्र सिर हे राजन!
कृत-कृत्य हुआ वह जीवन में, यह धन्य भाव साकार हुआ,
मानों प्रवाह बिजली का था, जिसने उसका मन-प्राण छुआ ।
प्रभु दर्शन नाना रुपों में, सब रुपों का प्रभु में दर्शन,
रहती हैं वही वस्तुएँ सब, फिर भी उनमें नित परिवर्तन ।
दैनन्दिन जीवन में अदृश्य, वे भी अपना अस्तित्व रखें,
प्रतिबिम्बित रही दिव्यता वह, जिसके कण जीवन में झलकें। क्रमशः…