सप्तमोऽध्याय – ‘ज्ञान-विज्ञान योग’
श्लोक (७,८,९,१०,११)
हे कुन्तीनन्दन मैं चिन्मय, मैं, सर्वव्याप्त परमेश्वर हूँ,
भासित मैं नाना रूपों में, जल के भीतर में जलरस हूँ।
मैं प्रभा सूर्य की शशि की हूँ, वैदिक मन्त्रों में ओंकार,
आकाश तत्व में शब्द रहा, पुरुषत्व मनुष्यों में अपार ।
मैं आद्य सुरभि हूँ पृथ्वी में मैं, रहा अग्नि में तेज प्रखर,
मैं सभी प्राणियों में जीवन, तपशीलों में मैं तप उज्ज्वल ।
मुझमें न रही विकृति कोई,मैं पूण्य विभा सत रूप रहा,
मैं हर पदार्थ में रस विशेष, मैं तत्वों में तत्त्वार्थ रहा
जो प्राणिमात्र का आदि बीज, हे पार्थ मुझे वह बीज जान,
हूँ प्रज्ञा प्रज्ञावानों की, मैं रहा सभी में विद्यमान ।
मैं शक्ति शक्तिशाली की हूँ,मैं हर पदार्थ का हूँ उद्गम्,
तेजस्वी का मैं तेज रहा, चेतन मुझसे जग का जीवन ।
बलवानों का मैं ऐसा बल, आसक्ति कामना जहाँ नहीं’,
जीवों के कार्य धर्म सम्मत, हो नहीं जहाँ मैं रहा नही ।
बल, निर्बल की जो मदद करे, बलवान न हो जाए दुर्जन,
निजधर्म रहा सब कर्मों का, मैं आदि स्रोत सबका अर्जुन ।
(१२)
सत, रज, तामस गुण से प्रेरित, उत्पन्न भाव जो भी होते,
अभिव्यक्त शक्ति मेरी, करती मेरे बिन वे न प्रगट होते ।
इस तरह रहा यों सब कुछ, मैं फिर भी माया गुण से अतीत,
आधीन किसी के हुआ नहीं, मैं हूँ स्वतन्त्र मैं हूँ अजीत ।
जितने भी सारे भाव रहे, चाहे वे रहे लयात्मक हों,
आवेग या कि आलस्यपूर्ण, उत्पन्न सभी वे मुझसे हों ।
सूचित सब होते मुझसे ही,पर करें न मुझमे परिवर्तन,
आधीन किसी के रहा न मैं, मेरे आधीन रहा जीवन ।
सत, रज, तामस के ये विकार, उत्पन्न रूप से है मेरे,
उत्पन्न हुए मुझसे लेकिन, मुझ पर न रहे इनके घेरे ।
ज्यों मेघ जन्मता है नभ में, पर नहीं मेघ में नभ होता,
या रहे मेघ में जल, लेकिन जल में वह मेघ नहीं होता ।
पानी के घर्षण से बिजली, होती उत्पन्न मगर बिजली,
क्या उसमें पानी होता है, जो पानी से ही हो निकली।
उठता है धुआँ आग से, पर होता न आग वह धुआँ घना,
सत्वादिक ये सारे विकार, मुझसे, मैं इनसे नहीं बना ।