एकादशोऽध्यायः ‘विश्व रूप दर्शन योग’
अध्याय ग्यारह – ‘भगवान का दिव्य रूपान्तर’
श्लोक (१९)
है आदि मध्य अरु अन्त रहित, हैं स्वयं सिद्ध महिमा अपार,
भावित जग रहा विकारों से, पर आप रहे प्रभु निर्विकार।
चन्दा सूरज आंखे भगवन जो शान्ति क्रोध को दिखलाते,
कोप प्रगट करते अपना, दावानल मुख से दर्शाते ।
दावाग्नि पर्वतों पर फैली, जिस तरह पदार्थ सब धधकाए,
ज्वाला विकराल उठे मुख से, वह भड़के बढ़ती ही जाए।
जिव्हा लपलपा रही भगवन, दाढ़ों दाँतो को चाट रही,
इस विश्वरुप की भट्टी में, मानो जग ईंधन डाल रही ।
इस विश्वरुप का तेज प्रबल, सब झुलस रहे इसके आगे,
पग जग व्यापी, कर भी असंख्य, मुख भीषण जहाँ अग्नि जागे।
कितनी ही लीलाएँ करते, दिखलाई देते हैं भगवन,
विकराल आग जलती दिखती, इससे हो जाता व्याकुल मन ।
प्रभु आप अनादि अनन्त रहे, हैं मध्य रहित हे आदि देव,
ज्यों रहीं भुजाएँ अनगिनती, त्यों रहे नेत्र हे परम देव ।
रवि-शशि असँख्य निज नेत्रों से, सम्पूर्ण विश्व भासित करते,
प्रभु तेज आपका ही जिससे, सम्पूर्ण जीवधारी तपते ।
मैं देख रहा हूँ तुझे अनादि मध्यान्त अनन्त वीर्य है तू,
सामर्थ्य तेज बल विक्रम में, अपना सा है, अनन्य है तू।
जन्म वृद्धि अरु मरण भाव, से परे परम तेजस्वी है,
मुख हवन कुण्ड की दीप्त अग्नि का हवन बनी यह पृथ्वी है।
श्लोक (२०)
महिमन यह रुप विराट रहा, भर गई दिशाएँ अब इससे,
आकाश, धरा से स्वर्ग तलक, परिपूर्ण हुआ महिमन तुझसे ।
यह रुप अलौकिक रहा, साथ ही रहा भयंकर हे भगवन,
हो रहे लोक तीनों व्याकुल, इस तरह तेज की रही तपन ।
मैं चकित हुआ यह देख रहा, दिशि-दिशि में एक रुप तेरा,
पृथ्वी पाताल स्वर्ग नभ में, इस विश्व रुप का है घेरा ।
ज्यों डूब गए हैं भुवन सभी, तेरे विराट इस घेरे में,
छटपटा रहे व्याकुलता से, दग-दगदग रहे उजेले में ।
आस्वर्ग धरा, बहु विविध लोक, आकाश अखिल अरु अन्तरिक्ष,
परिव्याप्त आपसे ही भगवन, न चराचर में कुछ रहा रिक्त ।
अति भयकारी यह रुप प्रभो, त्रिभुवन में जिसने भी देखा,
अति व्यथित हुआ वह दर्शन कर, भय-विस्मय की उभरी रेखा ।
श्लोक (२१)
सुरगण शरणागत हुए प्रभो, कर रहे आप में ही प्रवेश,
भयभीत बहुत करबद्ध प्रभो, कर रहे प्रार्थना कुछ विशेष ।
सिद्धों का दल ऋषिगण सारे, कर रहे स्वस्ति वाचन प्रभुवर,
वैदिक मंत्रों से स्तुति का, है गूँज रहा अम्बर में स्वर ।
जिनको सुरपुर में देखा था, उन देवगणों को देख रहा
वे करते जाते हैं प्रवेश, इस दिव्य रुप में देख रहा ।
करते हैं कुछ नामोच्चार, भयभीत हाथ जोड़े भगवन,
कुछ सिद्धजनों को देख रहा, गुणगान कर रहे जो भगवन
कर रहे स्वस्तिवाचन समूह, सिद्धों के और महर्षियों के,
बहु भाँती प्रशंसा में तेरी, गायन वे मंत्रों का करते ।
भयभीत नहीं है सिद्ध संघ, लख उग्र यह भयकारी,
स्तवन गूँजता है उनका, कल्याण मस्तु यह लयकारी ।
श्लोक (२२)
विस्मय विस्फारित नेत्रों से, सब देव आपको देख रहे,
गन्धर्व, यज्ञ, सुर, असुर, सिद्ध, सब देख आपको चकित रहे।
शिवरुप रुद्र ग्यारह विस्मित, विस्मित द्वादश आदित्य प्रभो,
वसु आठ, साध्यगण, विश्वदेव, अश्विनी कुमार द्वय, पितर प्रभो ।
हे भगवन मुझको दीख रहा, आश्चर्य चकित उन्चास पवन,
इन्द्रादिक विश्व रुप लखकर, हो रहे चकित कर रहे नमन ।
समुदाय सभी के भिन्न-भिन्न, यह अदभुत रुप निहार रहे,
सुर-असुर पितर गन्धर्व यक्ष, सिद्धों के दल आश्चर्य भरे ।
श्लोक (२३)
हे महाबाहु विकराल रुप, मन में भय का संचार करे,
बहु मुख, बहु पग, बहु नेत्र भुजा, जो देखे विस्मय वही करे।
जंघाएँ बहु, बहु उदर युक्त, जबड़े विकराल करें व्याकुल,
सुरगण व्याकुल सब लोक विकल, मैं भी हो रहा प्रभो व्याकुल ।
हे सर्वेश्वर, मुख ये अनेक, आँखें अनेक, बहु बाहु-दण्ड,
बहु पैर पेट व्यापक शरीर, रद पंक्ति बड़ी, दाढ़े प्रचण्ड ।
विकराल विशाल रुप ऐसा, जो देखे वह घबरा जाए,
थर थर काँपे ज्यों लोक कंपे,, मेरा भी धीरज खो जाए
यह रुप देखने वाले को, सम्मुख समान दीखे सबको,
दादें मुँह से बाहर निकलीं, भयभीत करें मन में सबको ।
अति दीन हीन संसार दिखे, यह विकट रुप भय उपजाए,
क्या करें अन्य की बात प्रभू, मन यह मेरा कंप कंप जाए।
भय-ग्रसित हुआ अन्तस मेरा, खो गया धैर्य्य मेरा भगवन,
मन में अशान्ति हलचल जागी, व्याकुलता बढ़ आई भगवन ।
नाना वर्णों से युक्त वदन, नेत्रों से युक्त प्रकाशवान,
धरती-आकाश एक करता, मुख भय उपजाता गुण निधान । क्रमशः…