श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 44वी कड़ी .. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 44वी कड़ी ..                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           चौथा अध्याय  :- ज्ञान-कर्म-सन्यास योग                                                                                                                                             
इन्द्रिय सुख की कामना रहित, जिसके अपने सब कर्म रहे,

वह परम विवेकी पुरुष रहा, जो कर्म करे, पर मुक्त रहे,

वह पुरुष-कर्म फल जिसके सब, जल चुके पूर्ण ज्ञानानल में

ऋषियों का ऐसा कहना है, वह पुरुष रहा ज्ञानी जग में।-19

 

आसक्ति कर्मफल की तजकर, सम्पूर्ण रूप से नित्य तृप्त,

वह आश्रयरहित स्वतंत्र पुरुष, कर्मों में नित रहता प्रवृत्त।

ऐसा न कर्म करता कोई, जो हो सकार्म बन्धनकारी,

उसके सब कर्म अकर्म रहे आत्मोन्मुख रही प्रवृत्ति सारी।-20

 

मन पर कर आत्म नियंत्रण जो, परिग्रह का भाव विचार तजे

चितात्मा से होकर विरक्त, जीवन यापन हित कार्य करे।

होता वह पुरुष परम ज्ञानी, कोई न पाप उसको लगता,

तन प्राण बचाने किया कर्म, उसका न उसे बन्धन बनाता।-21

क्षेपक :-

बनता निमित्त वह कर्मो का, परिपालक प्रभु की इच्छा का,

उसके द्वारा जो कर्म हुए उसका प्रेरक प्रभु को गिनता।

भगवत्सेवा में निरत रहे, इसलिये देह बनती साधन,

प्रभु की इच्छा की पूर्ति हेतु, यह जीव देह करता धारण।-21.1     क्रमशः…