‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 245 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा‘ धारावाहिक की 245 वी कड़ी..                      अष्टादशोऽध्यायः- ‘मोक्ष सन्यास योग’
‘निष्कर्ष योग’ समस्त अध्यायों का सार संग्रह । मोक्ष के उपायभूत सांख्ययोग (सन्यास) कर्मयोग (त्याग) का अंग प्रत्यंगों सहित वर्णन ।

श्लोक  (४१)

वर्णों का यह सिद्धांत पार्थ, विस्तारित करता क्षेत्र अर्थ,

जीवन भीतर बाहर समान, यदि नहीं रहा, वह रहा व्यर्थ ।

ऐसा बन रहे बाहृय जीवन, अन्तस को जो अभिव्यक्त करे,

हो जन्मजात स्वभाव जिसका, वह उसके कर्मों में उतरे ।

 

प्रत्येक व्यक्ति है केन्द्र बिन्दु, है अंश एक परमात्मा का,

उसका पहिला कर्तव्य यही, साकार उसे करने पाता ।

अपना स्वभाव है सत्य वही उपकरण प्रकृति के हम बनते,

अभिव्यक्त उसे ही कर पायें, उसके द्वारा माध्यम बन के ।

 

अपना स्वभाव, अपना स्वधर्म, समझें हम, करें उसे पालन,

प्रतिफलित सत्य वह हो जाये, जिसको करते हैं हम धारण।

लेकिन जो करना कर्म उन्हें, कर पाता नहीं मनुज भूला,

पाता न पूर्णता वह अपनी, मानो दोलन बनकर झूला ।

 

अनुकूल स्वभाव के कर्म करे, धर्मात्मा बनकर रहता है,

ईश्वर को अर्पित कर्म रहे, वह आध्यात्मिकता गहता है ।

पूर्णत्व प्राप्त होता उसको, अव्ययम् पद्य वह प्राप्त करे,

ब्रह्मत्व प्रगट होता उससे, वह जो भी अपने कर्म करे ।

 

घटनाओं का कर्त्ता बनकर, सम्पूर्ण जगत का बन जाता,

रच चले योजनाएँ अपनी, बनकर सारे जग का त्राता ।

धरती पर विग्रह फैल चले, कर्मो में दूषण भर जाता,

बन पाती नहीं व्यवस्था कुछ, विघटन विनाश बढ़ता जाता ।

 

सम्मुख जो एक समस्या को, प्रस्तुत करता मानव-जीवन,

वह सच्चे आत्म-खोज की है, मानव द्वारा सत्यानुशीलन ।

अथवा स्वभाव से विमुख हुए, हम केवल करते पाप रहें,

भूले हम अपना धर्म रहें, अपने ही सदा विरुद्ध चलें ।

 

वर्गो में नहीं व्यष्टियों में, मानव जीवन देखा जाए,

प्राकृतिक गुण जिसका जैसा, वैसा उसको लेखा जाए ।

यह व्यष्टि समष्टि का अंगभूत, रह सजग करे हित का वर्द्धन,

उसकी ही रही व्यवस्था यह, चारों वर्णो की, हे अर्जुन ।

 

यह नहीं जन्म या रंग-भेद, यह गुण विशेष का भेद रहा,

इनके अनुरुप प्रकार चार, सामाजिक जीवन रहा बटा ।

कर्तव्य सुनिश्चित सामाजिक, उनके उपयुक्त बनाती है,

यह एक व्यवस्था जीवन की, जो सुख की राह दिखाती है।

 

जन्मों-जन्मों के कर्मो के, जो संस्कार रचते स्वभाव,

गुण-वृत्ति प्राणियों में पैदा करता है, अन्तस का स्वभाव ।

गुण के द्वारा जो बने वर्ण, ये चार, कर्म इनके विभिन्न,

गुण-वृत्ति भिन्नता के कारण, होते हैं इनके कर्म भिन्न । क्रमशः….