दशमोऽध्याय – ‘विभूति योग’
अध्याय दस – ‘परमात्मा सबका मूल है’ ‘उसे जान लेना सबकुछ जान लेना है’
श्लोक (१५)
हे भूतभावन, उत्पन्न हुए, सम्पूर्ण भूत तब माया से,
हे भूतेश्वर सब महाभूत, तेरी ही आज्ञा पर चलते ।
हे देव देव, हे जगत्पते, हे पुरुषोत्तम, अज्ञेय परम,
अपनी माया से जान रहे, अपने को हे प्रभु आप स्वयं ।
विस्तृत कितना आकाश रहा, आकाश जानता है केवल
कितना पानी है सागर में, यह जान रहा सागर केवल ।
कितनी है शक्ति आपकी प्रभु, कोई क्या यह अनुमान सका?
किस किसका गर्व नहीं टूटा, क्या मिला किसी को सही पता?
प्रभु तुम ही तुमको जान रहे, कोई न जानने पाता है,
उतना ही बतला पाया है, जितना घट में भर लाता है ।
तुम प्राणिमात्र के स्रष्टा हो, तुम हो समर्थ समझाने में,
हो रहे जलाशय व्यर्थ सभी, चातक की प्यास बुझाने में ।
नियमन शासन करते सब पर, देवों के हो तुम पूजनीय,
पालक तुम सकल विश्व के हो, हे केशव तुम जग वन्दनीय ।
क्षर-अक्षर दोनों से उत्तम, तुम परम पुरुष हो पूर्ण काम,
गुणगान सभी ने किया मगर, पूरा कर पाया कौन गान?
श्लोक (१६)
अपनी विभूतियों का भगवन, मेरे प्रति यह वर्णन करिए,
जो परम अलौकिक दिव्य रहीं, प्रभु उनके बारे में कहिए ।
सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रहीं, किस तरह प्रतिष्ठित हुए आप?
हो गए सर्वव्यापी कैसे, सर्वज्ञ हुए किस भाँति आप?
अपनी विभूति वह दिखलायें, जो व्यापक तेज युक्त भगवन्,
जो सबसे बढ़कर शक्तिमान, जो करे नियन्त्रित जग-जीवन ।
निर्माणात्मक आत्मिक बल का, करती विभूति जो संचालन,
वह दिव्य रुप है कौन, बसा करता त्रिभुवन में जो भगवन् ।
उन सभी विभूतियों का वर्णन, मैं चाह रहा प्रभु करें आप,
बल, विद्या, तेज, शक्ति, गुण से पूरित जिनसे जग के पदार्थ ।
इन सबके वर्णन में सक्षम, केवल हैं आप, आप भगवन,
लोकों में, लोकों के अतीत, करतीं जो जीवन सन्धारण
इनमें हैं प्रमुख प्रसिद्ध कौन, उनको बतलायें, करें दया,
किस तरह आपको जान सकें, कैसे हो ध्यान अखण्ड सधा?
सर्वत्र आप जब विद्यमान, फिर चिन्तन को अवकाश कहाँ?
मिलकर फिर नहीं बिछुड़ना हो, भगवन विभूति वह मिले कहाँ?
श्लोक (१७)
हे योगेश्वर कृपया कहिए, किस तरह आपको पाऊँ मैं?
आच्छन्न योग माया से प्रभु, कैसे स्वरुप लख पाऊँ मैं?
किस भांति चिन्तन मनन करूँ, किन किन रुपों में भजूँ देव?
ऐश्वर्य आपका अमित रहा, समझें उसको किस तरह देव?
हे वासुदेव जग के सृष्टा, हैं आप कर्म गुण से योगी,
जड़-जंगम प्रकृति लखे मानव, ईश्वर को देखे उसमें ही ।
किन रुपों में करके विचार, कर सके आपका वह दर्शन?
किस विधि से मिलना हो सम्भव, प्रभु करें उसी का दिग्दर्शन ।
श्लोक (१८)
अमृतमय वचनों को सुनकर, होती है मुझको तृप्ति नहीं,
नित नित सुनते रहने की ही, बस एक भावना जाग रही।
अपनी विभूतियों का फिर से, प्रभु एक बार वर्णन करिए,
जिस योग शक्ति का वह वैभव, उससे मुझको परिचित करिए।
यह सुधा धार आनंद भरी, पी पीकर भी मन तृप्त नहीं,
जितना कर रहा पान इसका, उतनी ही ज्यादा प्यास बढ़ी ।
कह चुके बात पहिले भी जो, वह क्योंकर पुन: कही जाए?
प्रभु धारा बहने दो अबाध, बिन सुने न अधिक रहा जाए। क्रमशः…