विकास की बलि चढ़ता पर्यावरण…………..

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष ……….

तकनीक औद्योगिक समाज और वर्तमान नौकरशाही ने पर्यावरण संबंधी समस्याएं उत्पन्न कर दी है. उनमें से कई इतनी गंभीर है कि उन्होंने पृथ्वी पर जीव मात्र के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है ! उद्योग प्रधान देशों में तेजाबी वर्षा की विभीषिका ने वैज्ञानिकों और राजनेताओं को इन नौकरशाही की सोची समझी साजिश के कारण हैरान कर दिया है ! स्वीडन के वनविद डॉक्टर जैन रेमरोड़ ने मेक्सिको में हुई 9वी विश्व वन कांग्रेस में अपनी मनोव्यथा व्यक्त करते हुए कहा था ! वनों के अस्तित्व के लिए आवश्यक जैविक परिस्थितियां बदल रही हैं ! जहरीली गैसों और तेजाब आदि से पत्तियों पर कुप्रभाव पड़ता है !तेजाबीकरण के कारण जमीन में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है ! सारे भूमंडल में मौसम के बदलने का खतरा है ! बहुत बड़े मूल्य दांव पर हैं और इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं कि हमारा सामूहिक भविष्य वनों के स्वास्थ्य और उनके जिंदा रहने की क्षमता पर निर्भर है ! बड़े पौधों के लिए उत्पन्न खतरे की उपेक्षा कर यह नौकरशाह अपनी स्वार्थ सिद्धि के जरिए वनों का अस्तित्व लगभग समाप्त कर रहे हैं …..                                                                                                                                           राकेश प्रजापति

लाखों की तादाद में प्रतिवर्ष पेड़ों की कटाई से पर्यावरण को संतुलन करने वाले घटकों को समाप्त किया जा रहा है ! क्योंकि पेड़ पौधे आवाज नहीं उठा सकते और अचल होने के कारण बदला लेने के लिए आगे नहीं बढ़ सकते ,लेकिन अक्टूबर 1985 में पश्चिम जर्मनी में बर्लिन के निकट बीमार ग्रुनवाल्ड बन के वनाधिकारियों श्री हिलमात क्वीन ने बातचीत के दौरान विश्व विख्यात पर्यावरणविद , वृक्षमित्र माननीय सुंदरलाल बहुगुणा से कहा था कि बनो और पेड़ों की बात छोड़ दीजिए ! लेकिन स्यूडोकृप्स की नई बीमारी के कारण मेरी बच्चों की जाने क्यों जा रही हैं ? यह नई बीमारी उद्योग प्रधान नगरों में व्याप्त है ! जिसके कारण एकाएक साँस बंद होने से बच्चे मर जाते हैं ! चाहे पेड़ की मौत हो ,चाहे मध्यप्रदेश में भोपाल की तरह हजारों लोगों की सामूहिक मौत हो या वायु और जल के प्रदूषण एवं राजस्थान के विस्तार के कारण लाखों लोगों की धीरे-धीरे होने वाली मौत , सबका एक ही कारण है वः है प्रक्रति के साथ मनुष्य का घोर दुर्व्यवहार और इसमें अहम भूमिका निभाते हैं आधुनिक नौकरशाह , जिन्होंने दुर्भाग्य से इसे विकास की संज्ञा देकर गौरवान्वित किया है ! विकास की इस परिभाषा का जन्म इस भान्त दृष्टि से मैं से हुआ है कि मनुष्य प्रकृति का स्वामी है , मालिक है, “धरती का भाग्य ” नामक पुस्तक में जोनाथन सेल कहते हैं मनुष्य की ताकत में वृद्धि से मनुष्य और धरती के बीच शक्ति संतुलन में एक निर्णायक और बहुआयामी परिवर्तन हुआ है ! प्रकृति जो एक जमाने मैं क्रूर और भयावह स्वामी के रूप में देखी जाती थी, वह अब पूरी तरह गुलाम और गुलाम हो चुकी है और मनुष्य बौद्धिक और तकनीकी प्रगति के कितने ही ऊंचे समवेत शिखर ऊपर क्यों ना पहुंच गया हो परंतु उसकी जड़ें प्रकृति में है , इसलिए यह संतुलन उसके विरोध में चला गया है,और इसके कारण धरती के लिए जो खतरा पैदा हुआ है वह स्वयं मनुष्य के लिए भी है ! तकनीक का उपयोग विपुलता के लिए अर्जन के लिए हुआ था जो विकास का लक्ष्य माना गया था ! यूरोप में औद्योगिक क्रांति के बाद उसकी गति तीव्र हो गई थी ! औद्योगिक दृष्टि से उन्नत देशों में एशिया , अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका ने अपने उपनिवेश स्थापित किए ! इन देशों में वनीकरण और अवनीकरण प्रकृतिक संसाधनों का विपुल भंडार था !

तकनीकी के उपयोग से वे इस भंडार का शोषण करके चुटकियों में सम्पन्न बन गए उनकी देखा देखी समृद्धि हासिल करना सभी रास्तों का लक्ष्य हो गया ! इस पद्धति का मुख्य अंग है केंद्रीय उत्पादन और वनीकरण ! प्रारंभ में कम आबादी वाली उत्तरी क्षेत्र में बड़े उद्योगों के कारण समस्याएं पैदा नहीं हुई ! उद्योग केंद्रों के निकट बड़े-बड़े नगर विकसित हुए , केंद्रीकृत औद्योगिक उत्पादन की पद्धतियां वानिकी और कृषि के क्षेत्र में भी लागू की गई , इससे मनुष्य और प्रकृति के संबंधों में बहुत बड़ा परिवर्तन आया ! कृषि अब सांस्कृतिक जीवन पद्धति नहीं रह गई है ? बल्कि व्यापार बन गई है ! किसान का एकमात्र ध्येय बन गया है एक फसलों में अधिक पैसा कमाना ! प्राकृतिक वन जो विभिन्न प्रजाति और आयु के पेड़ों, झाड़ियों ,लताओं ,कंदमूल , कीड़े मकोड़े और वन्य जीवो के जीवित समुदाय थे ! इमारती और औद्योगिक लकड़ी की खानों में बदल गए ! यह प्रक्रिया अभी भी जारी है ! कई स्थानों के में मिश्रित प्राकृतिक वनों को अपनी अवैध आय का साधन बनाकर नौकरशाहों की पंक्ति को व्यवस्था ने बनो को काटकर , उजाड़कर रख दिया है तथा फिर सामाजिक वानिकी के नाम पर नए आयाम पैदा कर यूकेलिपटस ,चिक और सागोन आदि के एकल प्रजाति के पेड़ों रोपे बनवाए जा रहे हैं ! इससे इमारती लकड़ी और औद्योगिक कच्चे माल का उत्पादन अवश्य ही बढ़ गया है लेकिन मानव जाति की दो मूलभूत पूंजी या यानी मिट्टी और पानी पर इसका बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है ! इसके कारण वनों को पुनः उगाने की योजनाएं भी विफलता की ओर अग्रसर है ! भारत मैं तीव्रता से पनपती व्यापारिक वन प्रबंधन ने वनवासियों को ही वनों का शत्रु बना दिया है !

प्राकृतिक वनों के विनाश के कारण वनवासी कंदमूल ,जंगली फल ,शहद व अन्य खाद्य पदार्थों से वंचित कर दिए हैं ! जिंदा रहने के लिए वह मजदूरी में लकड़हारे बन गए हैं ! परंतु उनकी जीविका का एकमात्र साधन को शासन तंत्र में बैठे नौकरशाही लावी की कुदृष्टि का शिकार बेरहमी से होना पड़ रहा है और उन पर वन विभाग के उच्चाधिकारियों की घिनौनी करतूतों के चलते झूठे प्रकरण में फंसा कर तरह तरह से यातनाएं सहने पर मजबूर होना पड़ रहा है ! विनाश के कुफल केवल वनवासियों को ही नहीं भुगतने पड़ते , वनों से निकलने वाली नदियों की उपत्यकाओ में या वनों के बाहर रहने वाले लोग भी विनाशकारी बाढ़ हो और नालों के सूखने के शिकार हो रहे हैं ! पानी की गुणवत्ता का भी हास हुआ है ! हिमालय की पहाड़ी ढालों पर बांस (ओक ) वन थे चश्मे का पानी स्वास्थ्य और हाजमा बढ़ाने वाला होता था ! लेकिन जब चीड़ के वनों को व्यापारिक वनों में बदल दिया गया , तो पानी की विशिष्ट गुण समाप्त हो गए ! वन लुगदी व प्लाईवुड के कारखानों के शिकार भी हुए ! जहां भी लुगदी प्लाईवुड के बड़े-बड़े कारखाने स्थापित हुए हैं वहाँ से वन विलुप्त हो गए !

भारत में बांस दुर्लभ हो गए ! असम में प्लाईवुड के कारखानों ने वहां के वनों को उजाड़ दिया है ! उत्तराखंड और पश्चिम हिमालय में स्थित चीड के समुद्र अब चीड के श्मशान बना दिए गए हैं ! आज की लालफीताशाही ने प्रदूषण अधिकाधिक उपभोग में विस्वास करने वाली हमारी वस्तुवादी सभ्यता का उपहार है , इसलिए प्रदुषण तकनिकी उपायों को अपनाने मे नही है ,हमे विकास की परिभाषा ही बदलनी होगी ! ‘ ढाई हजार बर्ष से भी पहले बुध ने विकास का लक्ष्य स्थाई सुख शांति और अंततोगत्वा संतोष की प्राप्ति को बताया था , इसकी शुरुआत प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति से लेकिन वासनाओं एवं लालच की मौत (तृष्णाक्षय) से होनी थी ! गांधी जी ने मानव और प्रकृति के संबंधों की व्याख्या करते हुए कहा था प्रकृति हर एक की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त है लेकिन थोड़े लोगों के लोभ लालच के लिए कुछ नहीं है ! यह चिंतन नई तकनीक के उपयोग के विरुद्ध नहीं लेकिन निश्चय ही यह केंद्रीयकरण और प्रकृति का निर्माण शोषण कर प्रशासनिक तंत्र में बैठे नौकरशाहों के काले कारनामों एवं कुनीति के विरुद्ध अक्षर:ह सत्य है ! सन 1945 के मुकाबले सन 2025 में हमारी पानी की आवश्यकता संभवत 3 गुना होगी ! पेड़ जल संरक्षण करते हैं ,परंतु आधुनिक नौकरशाह यूकेलिप्टस लगाकर औद्योगिक दृष्टि से जल संरक्षण का क्षय कर पर्यावरण संतुलन को खतरा पैदा कर रहे हैं ! नौकरशाहों के क्रूर व्यवहार के कारण धरती गंभीर रूप से घायल हो गई है ! हमें एक ऐसी तकनीक और जीवनशैली की आवश्यकता है जो मिट्टी की गुणवत्ता को बढ़ाने और जल स्रोतों का संरक्षण करते हुए धरती के घावों को भर सके …… राकेश प्रजापति