क्या मोदी सरकार का भोंपू Pbns ..?

पीटीआई पर कब्जे की साजिशो से जन्मी  केंद्रीय समाचार एजेंसी पीबीएनएस.
एफएम गोल्ड की शुरुआत साल 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में हुई थी. तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री सुषमा स्वराज ने आकाशवाणी के इस नए इंफोटेंनमेंट चैनल को हरी झंडी दिखाई थी. इस चैनल का मूल विचार बहुत दिलचस्प था. आकाशवाणी के समृद्ध, सुदृढ़ आर्काइव और पुराने दौर के क्लासिक फिल्मी संगीत को मिलाकर एक इंफोटेनमेंट चैनल की परिकल्पना की गई जिसमें बीच-बीच में खबरों के छोटे-छोटे बुलेटिन हुआ करते थे. शुरुआत से इसमें 70% मनोरंजन और 30% खबरों का समय तय था. देखते ही देखते यह चैनल बेहद लोकप्रिय हो गया. अतुल चौरसिया….
” alt=”” aria-hidden=”true” />

मध्य जुलाई की किसी तारीख में आकाशवाणी में काम करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ओला से टैक्सी बुक करके संसद मार्ग स्थित आकाशवाणी भवन से अपने घर को निकले. रास्ते में ड्राइवर लगातार एफएम गोल्ड (100.1 एफएम) चैनल सुनता जा रहा था. उस समय मार्केट मंत्रा नाम का शो चल रहा था. उत्सुकतावश उन्होंने ड्राइवर से पूछा यह मार्केट, शेयर बाजार तुमको समझ में आता है, क्या मजा आता है इसमें? ड्राइवर ने जवाब दिया, “यह मेरे किसी काम का नहीं है. यह चैनल तो मैं इसलिए सुनता हूं कि इस पर गाना बहुत अच्छा-अच्छा आता है. ये जब खत्म होगा तब बहुत शानदार कार्यक्रम शुरू होगा. पुराना, सुपरहिट गाना और कहीं सुनने को नहीं मिलता, सिर्फ इसी चैनल पर आता है, इसीलिए इसे सुनता हूं.”

यह अजब विडंबना थी कि जो पत्रकार ड्राइवर से यह बात पूछ रहे थे खुद उनकी भी एक भूमिका रही थी एफएम गोल्ड को बंद करके पूर्णकालिक समाचार स्टेशन में तब्दील करने में. लिहाजा उन्होंने ड्राइवर के सामने उस वक्त चुप्पी साध ली. उसे यह बताना जरूरी नहीं समझा कि जिन पुराने, सुपरहिट गानों का उसे इंतज़ार है वो अब नहीं सुन सकता क्योंकि एफएम गोल्ड को कुछ महीने पहले इंफोटेनमेंट स्टेशन से बदल कर 24 घंटे का समाचार चैनल बना दिया गया है.

25 मार्च को पूरे देश में लॉकडाउन की घोषणा होने के साथ ही आकाशवाणी ने एफएम गोल्ड को 24 घंटे के समाचार चैनल में तब्दील कर दिया. वह ऐसा समय था जब ज्यादातर कर्मचारी और एनाउंसर (आरजे) घरों से काम कर रहे थे. अचानक से ये सभी कर्मचारी बेरोजगार हो गए. एफएम गोल्ड से बेरोजगार हुए कर्मचारियों की संख्या 80 के आस पास है. अचानक से एक लोकप्रिय एंफोटेनमेंट चैनल को समाचार चैनल में बदलने के पीछे आकाशवाणी का तर्क था कि कोरोना का प्रकोप है देश में लिहाजा लोगों को मनोरंजन से ज्यादा सूचनाओं की जरूरत है.

हालांकि यह तर्क बेहद लचर है और इसमें कई तरह की गड़बड़ियां है, जिसे समझने के लिए घटनाक्रम को थोड़ा अतीत में जाकर खंगालने की जरूरत है. इसके सूत्र हाल ही में मुखर होकर सामने आए प्रसार भारती-पीटीआई की आपसी अनबन से जुड़ते हैं, इसके सूत्र मोदी सरकार के अतिशय प्रचार-प्रेम से जुड़ते हैं और साथ ही इसके सूत्र लगभग साल भर पहले शुरू हुई प्रसार भारती न्यूज़ सर्विस से जुड़ते हैं. इतने सारे सिरों को खंगालने कि लिए हम पहले एफएम गोल्ड के चरित्र में किए गए बदलाव को समझते हैं.

एफएम गोल्ड की शुरुआत साल 2001 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में हुई थी. तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री सुषमा स्वराज ने आकाशवाणी के इस नए इंफोटेंनमेंट चैनल को हरी झंडी दिखाई थी. इस चैनल का मूल विचार बहुत दिलचस्प था. आकाशवाणी के समृद्ध, सुदृढ़ आर्काइव और पुराने दौर के क्लासिक फिल्मी संगीत को मिलाकर एक इंफोटेनमेंट चैनल की परिकल्पना की गई जिसमें बीच-बीच में खबरों के छोटे-छोटे बुलेटिन हुआ करते थे. शुरुआत से इसमें 70% मनोरंजन और 30% खबरों का समय तय था. देखते ही देखते यह चैनल बेहद लोकप्रिय हो गया.

हालांकि सरकारी बाबुओं के भीतर इसके प्रति रवैया हमेशा दुविधा और एक लिहाज से दुश्मनी भरा रहा. मसलन इस चैनल की शुरुआत 106.4 मेगाहर्ट्ज पर हुई थी. एफएम स्टेशनों की खासियत यह होती है कि उनकी फ्रीक्वेंसी ही उनकी पहचान यानी ब्रांड बन जाती है. लोगों ने जल्द ही खुद को एफएम गोल्ड पर आने वाले पुराने दौर के सुपरहिट गानों और फिल्मी हस्तियों के पुराने साक्षात्कार आदि के लिए 106.4 मेगाहर्ट्ज से जोड़ लिया. इस लिहाज से यह चैनल न सिर्फ लोकप्रिय हुआ बल्कि एक तरह का ट्रेंडसेटर बन गया. बाद में इसकी देखा देखी कई प्राइवेट एफएम चैनलों ने भी इस पैटर्न को अपनाने की कोशिश की. लेकिन आकाशवाणी के समृद्ध आर्काइव और यहां काम करने वाली बेहतरीन लेखकों की टीम के चलते एफएम गोल्ड हमेशा अपने प्रतिद्वंद्वियों से मीलों आगे रहा. लेकिन मोदी सरकार के पहली बार सत्ता में आने के बाद साल 2018 में अचानक से एफएम गोल्ड से उसकी 106.4 मेगाहर्ट्ज वाली पुरानी पहचान छीन ली  गई .

2018 के मार्च महीने में आकाशवाणी के अधिकारियों ने गुपचुप तौर पर व्हाट्सऐप पर एक सूचना जारी कर ऐलान किया कि 9 अप्रैल, 2018 से एफएम गोल्ड (दिल्ली) चैनल की 106.4 मेगाहर्ट्ज़ फ्रीक्वेंसी बदल कर 100.1 मेगाहर्ट्ज़ फ्रीक्वेंसी पर डाल दिया जाएगा. इतने बड़े फैसले की सूचना व्हाट्सऐप पर जारी हुई. एक लोकप्रिय चैनल से उसकी पहचान छीन लगी गई और उसके श्रोताओं को इसकी जानकारी देना भी मुनासिब नही समझा गया. इस तरह 9 अप्रैल, 2018 से एफएम गोल्ड अपनी 17 बरस पुरानी प्रसिद्ध पहचान को छोड़कर विविध भारती की 3 साल पुरानी एक कमजोर 100.1 मेगाहर्ट्ज फ्रीक्वेंसी पर चला गया.

इस बदलाव के सम्बन्ध में आकाशवाणी ने अपने फेसबुक और ट्विटर पेज पर एक-दो बार सूचना डाली जिसमें कहीं पर भी फ्रीक्वेंसी बदलने का कोई कारण नहीं बताया गया.

खैर पुरानी पहचान खत्म हो जाने के बाद भी एफएम गोल्ड के कर्मचारी इसकी लोकप्रियता को बनाए रखने में कामयाब रहे. लेकिन मार्च महीने में कोविड के चलते लॉकडाउन शुरू होते ही इसे बंद करते हुए, पूरी तरह से न्यूज़ डिवीज़न के हवाले कर दिया गया. अब इस पर दिन भर या तो खबरों के बुलेटिन चलते हैं या फिर सरकारी योजनाओं से जुड़े रिकॉर्डेड प्रोग्राम चलाए जाते हैं. इसकी वजह यह भी है कि एफएम गोल्ड के 80 कैजुअल कर्मचारियों को बाहर का रास्ता दिखा देने के बाद नई व्यवस्था में किसी तरह का न्यूज़ या प्रोडक्शन ठप हो गया है इसलिए पुराने रिकॉर्डेड प्रोग्राम चलाना पड़ता है. बीच-बीच में नियमित अंतराल पर मोदी सरकार की योजनाओं के विज्ञापन और उनके भाषण चलते हैं.

कार्यक्रमों का टोटा ही एकमात्र दिक्कत नहीं है. बुलेटिन में खबरों का ट्रीटमेंट भी सरकार और सत्ताधारी भाजपा के पक्ष में हद से ज्यादा झुका होता है. मसलन 30 जुलाई की रात 8 से 8:30 बजे के बीच जारी हुए बलेटिन में खबरों की टोन और ट्रीटमेंट समझिए- पहले केरल में कोरोना वायरस की स्थिति की जानकारी देते हुए बताया गया कि केरल में कोरोना के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है. बीते 24 घंटे में दो नए कोरोना मरीजों की मौत हुई है. इस तरह केरल में कुल मरने वालों की संख्या बढ़कर 70 हो गई है. इसके ठीक बाद बुलेटिन में गुजरात में कोरोना की स्थिति की जानकारी देते हुए बताया गया कि मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने प्रधानमंत्री के नेतृत्व में प्रभावशाली ढंग से कोरोना से निपटने में सफलता पायी है. आश्चर्यजनक रूप से इस खबर में गुजरात में कोरोना से संबंधित कोई आंकड़ा नहीं बताया गया.

सच्चाई यह है कि उस दिन गुजरात में कोरोना से 24 नए मरीजों की मौत हुई थी इसके साथ ही उस दिन गुजरात में कोरोना से मरने वालों की कुल संख्या 2,396 पहुंच गई थी. लेकिन इन आंकड़ों का जिक्र पूरे बुलेटिन में नहीं किया गया. उल्टे बुलेटिन में विजय रूपानी के उस बयान का प्रमुखता से जिक्र किया गया जिसमें वो केरल सरकार के कोरोना कुप्रबंधन के लिए लताड़ रहे थे. एक तरफ दो मौतें, दूसरी तरफ 24 मौतें. एक पर हाय-तौबा, दूसरे का जिक्र ही नहीं.

कार्यक्रमों का तरीका एक मनोरंजन प्रधान एफएम चैनल को सरकार के प्रचार चैनल में बदलने की कोशिश दिखाता है. इस मामले में सूचना और प्रौद्योगिकी मामलों की संसदीय समिति के सदस्य और सीपीएम के सांसद पीआर नटराजन ने हमें बताया, “एफएम गोल्ड को पूरी तरह से प्रोपगैंडा चैनल में बदल दिया गया है. नरेंद्र मोदी की सोच जाहिर है. वो प्रोपगैंडा और प्रचार के लिए जाने जाते हैं. एक और एफएम गोल्ड को समाचार चैनल में बदलने के पीछे उनकी यही सोच है.”

क्या संसदीय समिति की बैठक में एफएम गोल्ड का स्वरूप बदलने या फिर इसके कर्मचारियों को बाहर करने को लेकर समिति के बीच कोई बैठक या बातचीत हुई है? इस सवाल पर नटराजन कहते हैं, “मैं समिति के भीतर हुई बातचीत की जानकारी आपको नहीं दे सकता लेकिन एफएम गोल्ड के कर्मचारियों से हमारी पूरी सहानूभूति है. 11 अगस्त को समिति की बैठक होनी है, मैं आपको सिर्फ इतना ही बता सकता हूं कि इस बैठक का एजेंडा अभी तक स्पष्ट नहीं है.”

इस संबंध में हमने समिति कि एक और सदस्य महुआ मोइत्रा को भी सवालों की सूचि भेजी है लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.

एफएम गोल्ड का स्वरूप बदलने और और इसके लगभग 80 कैजुअल कर्मचारियों (आरजे) के एक झटके में बेरोजगार हो जाने के मसले पर कुछ दिनों पहले प्रसार भारती के सीईओ शशि शेखर वेम्पति ने टाइम्स ऑफ इंडिया को साक्षात्कार में .उन्होंने दावा किया, “एफएम गोल्ड के कैजुअल कर्मचारियों के साथ प्रसार भारती का एम्पलॉयी-एम्पलॉयर का रिश्ता नहीं है. वो फ्रीलांसर हैं जो कि पार्ट टाइम आधार पर काम करते हैं. उन्हें असाइनमेंट के आधार पर प्रसार भारती भुगतान करता है. एआईआर अपनी जरूरत के हिसाब से उनका इस्तेमाल करता है. आज भी एआईआर में कई जगहों पर ऐसे कर्मचारी काम कर रहे हैं.”

जिन्हें शशि शेखर वेम्पति फ्रीलांसर बता रहे हैं उनमें से ज्यादातर 10, 15 और कुछ तो 20 साल से एफएम गोल्ड का हिस्सा रहे हैं. इन कैजुअल कर्मचारियों ने खुद के लिए पहली बार फ्रीलांसर शब्द सुना. लिहाजा वो चौंक गए. एफएम गोल्ड से बेरोजगार हुए कर्मचारियों ने ऑल इंडिया रेडियो ब्रॉडकास्टिंग प्रोफेशनल्स एसोसिएशन (एआईआरबीपीए) नाम से संगठन बनाकर प्रसार भारती के इस एकतरफा रवैए का विरोध किया है. एफएम गोल्ड में बतौर कैजुएल एनाउंसर काम करने वाली रमा शर्मा जो कि एआईआरबीपीए की एग्जक्यूटिव सदस्य भी हैं, ने हमसे कहा, “हमने पहली बार खुद के लिए फ्रीलांसर शब्द वेम्पतीजी के मुंह से सुना है. हम कैजुअल कर्मचारी है. हमारे तमाम लोग 2016 से पर्मानेंट होने के लिए सुप्रीम कोर्ट में केस लड़ रहे हैं.”

शशि शेखर वेम्पति के बयान पर और रोशनी डालते हुए शर्मा ने हमें बताया, “ये सरासर गलत बात है कि हम फ्रीलांसर हैं और हमसे प्रसार भारती का एम्प्लॉयी-एम्प्लॉयर का कोई रिश्ता नहीं है. अगर ऐसा है तो रीस्क्रीनिंग के मुद्दे पर हमारी याचिका पर कैट (सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्राइब्यूनल यानि केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण) सुनवाई क्यों कर रहा है?”

गौरतलब है कि कैट सरकारी विभागों के कर्मचारियों के अंदरूनी मसलों का निपटारा करने वाली न्यायिक व्यवस्था है. यानि कैट उन्हीं की सुनवाई करता है जो सरकारी कर्मचारी माने जाते हैं. प्रसार भारती द्वारा कुछ समय पहले 35 साल से ऊपर केएफएम गोल्ड के कर्मचारियों की दोबारा से स्क्रीनिंग कर बहाल करने का नियम लागू किया था जिसे इन कैजुअल कर्मचारियों ने कैट में चुनौती दी. कैट ने इस पर स्टे दे रखा है.

प्रसार भारती न्यूज़ सर्विस (पीबीएनएस)कनेक्शन : लगभग डेढ़ साल पहले स्थापित हुई प्रसार भारती न्यूज़ सर्विस (पीबीएनएस) मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है. इस सेवा के गठन की परिस्थितियां भी दिलचस्प हैं. 2014 में पहली दफा भाजपा की सरकार बनने के बाद मोदी सरकार ने मीडिया के तमाम महत्वपूर्ण हिस्सों पर प्रत्यक्ष-परोक्ष तरीके से अपना नियंत्रण मजबूत करने की कोशिश की. इन कोशिशों में एक अहम कोशिश थी देश की सबसे बड़ी और प्रतिष्ठित समाचार एजेंसी पीटीआई पर नियंत्रण स्थापित करने की.

26 फरवरी, 2016 को पीटीआई निदेशक मंडल की एक आपात बैठक बुलाई गई. गौरतलब है कि पीटीआई के निदेशक मंडल में देश के 98 महत्वपूर्ण अखबारी घरानों के सदस्य हैं. आशा के विपरीत बैठक में सदस्यों को जानकारी दी गई कि मोदी सरकार पीटीआई के कामकाज में हस्तक्षेप करना चहती है. लेकिन निदेशक मंडल ने बहुमत से तय किया कि वह सरकार की तरफ से होने वाले ऐसे किसी हस्तक्षेप का विरोध करेगी और पीटीआई की स्वायत्तता को कायम रखने का काम करेगी. बैठक में शामिल एक सदस्य ने यह खबर उस समय मीडिया से साझा की थी.

सरकार की मंशा पीटीआई के प्रधान संपादक के पद पर अपनी पसंद के व्यक्ति को बिठाने की थी. उस समय अरुण जेटली मौजूद थे और वित्त के साथ सूचना-प्रसारण मंत्रालय के जरिए सबसे ताकतवर मत्रियों में शुमार थे. दिल्ली की मीडिया में उनकी गहरी घुसपैठ के किस्से आम थे. उनके जरिए ही मोदी सरकार ने पीटीआई को कब्जे में लेने का इंतजाम किया था.

दरअसल पीटीआई की इससे पहले हुई एक बैठक में तत्कालीन प्रधान संपादक और चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर महाराज कृशन राजदान (एमके राजदान) ने अपनी उम्र का हवाला देकर कम से कम चीफ ऑपरेटिंफ ऑफिसर की जिम्मेदारी से मुक्त होने की इच्छा जतायी थी.

राजदान के विकल्प के रूप में नया सीईओ चुनने के लिए निदेशक मंडल ने तीन सदस्यों की समिति बनाई.

सीईओ चुनने के लिए बनी समिति के एक सदस्य ने हवा में नया जुमला उछाल दिया कि तीन वरिष्ठ पत्रकारों के नाम पीटीआई के संपादक पद के लिए विचाराधीन हैं. इससे हड़कंप मच गया. सीईओ के बजाय संपादक की चर्चा कैसे शुरू हुई. इसके पीछे निदेशक मंडल में शामिल उस सदस्य की तरफ उंगली उठी जिनके भाजपा से करीबी संबंध थे. बहरहाल जो तीन सदस्यी कमेटी बनी थी उसमें दैनिक जागरण के महेंद्र मोहन गुप्ता, मलयाला मनोरमा के रियाद मैथ्यू और स्वतंत्र निदेशक एफ पोचखनवाला शामिल थे. पीटीआई के नए एडिटर की खोजबीन की अफवाह फैलते ही निदेशक मंडल के एक सदस्य ने उस समय गोपनीयता की शर्त पर मीडिया में स्थिति को स्पष्ट किया, “तीन सदस्यों वाली कमेटी की अब तक कोई बैठक भी नहीं हुई है. किसी अखबार में विज्ञापन तक नहीं छपा, न ही पीटीआई की वेबसाइट पर कुछ आया. ये नाम हवा में उछाल दिए गए हैं. एडिटर का पद तो मीटिंग के एजेंडे में था ही नहीं.”

उस वक्त पीटीआई बोर्ड के चेयरमैन होरमुसजी एन कामा ने साफ शब्दों में बयान जारी किया कि- “हमने हमेशा अपनी स्वतंत्रता को महत्व दिया है. मैं इस मौके पर आप सबको भरोसा देना चाहता हूं कि हम पीटीआई में किसी तरह के राजनीतिक प्रभाव या हस्तक्षेप की इजाजत नहीं देंगे.”

पीटीआई के 16 सदस्यीय बोर्ड के बाकी सदस्यों ने भी उस मीटिंग में चेयरमैन के विचार को पूरा समर्थन दिया. इस तरह से पीटीआई पर कब्जे की मोदी सरकार की पहली पहल नाकाम रही. यहां से मोदी सरकार की पीटीआई से अदावत का सिलसिला भी शुरू हो गया.

इसके बाद से सरकार ने पीटीआई के असर और पहुंच को सीमित करने के विकल्प पर विचार शुरू किया. इसका पहला उपाय यह निकाला गया कि पीटीआई की आय के स्रोत पर निशाना साधा जाय. 2017 में तेजी से यह ख़बर फैली कि प्रसार भारती ने पीटीआई और यूएनआई की सेवाओं को समाप्त कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरदहस्त वाली समाचार सेवा हिंदुस्तान समाचार को सब्सक्राइब करने का निर्णय किया है. सच्चाई यह है कि प्रायोगिक तौर पर प्रसार भारती ने हिंदुस्तान समाचार की सेवाओं का इस्तेमाल करना शुरू भी कर दिया था.

यह सेवा मुफ्त में उपलब्ध करवाई गई थी. इस बाबत यूपीए सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री रहे मनीष तिवारी ने सिलसिलेवार ट्वीट करके जानकारी दी थी. बाद में किन्हीं कारणों से हिंदुस्थान समाचार की सेवा को प्रसार भारती ने सब्सक्राइब नहीं किया. प्रसार भारती में कार्यरत एक अधिकारी ने हमें बताया, “हिंदुस्थान समाचार की सेवाओं को सब्सक्राइब नहीं करने की वजह उनका सतही कंटेंट था. खबरें बेहद कमजोर और हद दरजे तक एक पार्टी के पक्ष में रहती थीं. इसके अलावा मीडिया में मामला उछल जाने से सरकार बैकफुट पर आ गई.”

हिंदुस्तान समाचार की स्थिति इस बीच एक और वजह से खराब हो गई. अब तक यह राज्यसभा सांसद आरके सिन्हा के संरक्षण में चल रही थी. गौरतलब है कि आरके सिन्हा देश की सबसे बड़ी प्राइवेट सिक्योरिटी एजेंसी के मालिक हैं. उन्होंने मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद खुले हाथ से हिंदुस्थान समाचार को खड़ा करने में योगदान दिया. लेकिन 2018 के अंत और 2019 की शुरुआत आते-आते हिंदुस्थान समाचार से उनका मोहभंग हो गया. उनसे जुड़े करीबी लोग बताते हैं कि सिन्हाजी बिहार की पटना साहिब सीट से लोकसभा टिकट चाहते थे. वे वहीं के रहने वाले हैं और उस लोकसभा सीट का जातीय समीकरण उनके पक्ष में था. इससे पहले उस सीट से एक और सिन्हा शत्रुघ्न सिन्हा चुनाव लड़ते थे. लेकिन पार्टी ने आरके सिन्हा की इस इच्छा का दमन करते हुए रविशंकर प्रसाद को पटना साहिब का टिकट दे दिया. इससे बुरी तरह टूटे और नाराज आरके सिन्हा ने पार्टी और हिंदुस्थान समाचार की गतिविधियों से अपना हाथ खींच लिया.

इसका नतीजा यह हुआ कि हिंदुस्थान समाचार आज अधर में अटक गया है. इसके विस्तार की योजनाएं रुक गई हैं. सरकार के समर्थन से प्रसार भारती के जरिए उसका कायाकल्प करने योजना अब ठंडे बस्ते में डाल दी गई है.

लेकिन सरकार द्वारा पीटीआई की नकेल कसने की इच्छा खत्म नहीं हुई थी. शुरुआती दो योजनाएं असफल होने के बाद पीटीआई और यूएनआई की सेवाओं के समानांतर प्रसार भारती की अपनी समाचार सर्विस शुरू करने का विचार कुछ नौकरशाहों और भाजपा समर्थक पत्रकारों ने हवा में उछाला. इसके जवाब में साल 2019 में प्रसार भारती न्यूज़ सर्विस (पीबीएनएस) का उदय हुआ.

पीबीएनएस के पीछे तर्क यह था कि प्रसार भारती के अंतर्गत आने वाले आकाशवाणी के पास पूरे देश में करीब 700 रिपोर्टर हैं. इसी तरह दूरदर्शन से जुड़े लगभग 400 रिपोर्टर और स्ट्रिंगर हैं. विचार इस रूप में आगे बढ़ा कि प्रसार भारती इतने लंबे-चौड़े रिपोर्टर नेटवर्क का इस्तेमाल करके अपनी स्वयं की समाचार एजेंसी शुरू कर सकता है. आकाशवाणी में बतौर सलाहकार नियुक्त एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं, “यह विचार संसाधनों के अधिकतम इस्तेमाल के लिहाज भी अच्छा है और प्रसार भारती का बजट कम करने में भी इससे सहायता मिलेगी. अगर दूरदर्शन और आकाशवाणी के करीब 1100 रिपोर्टरों का अच्छे से इस्तेमाल हो तो पीटीआई और यूएनआई से भी बेहतर समाचार एजेंसी बन सकती है और इसके लिए हमें कोई अतिरिक्त पैसा भी खर्च नहीं करना है.” इस तरह पीबीएनएस की कल्पना साकार हुई.

यहां पर एक विडंबना से आपका परिचय करवा दें. जिस वक्त प्रसार भारती को हिंदुस्थान समाचार का सब्सक्रिप्शन दिलाने की बात चल रही थी उस प्रक्रिया का हिस्सा उस समय हिंदुस्थान समाचार के सीईओ रहे समीर कुमार भी थे. एक समय में कुमार को आरके सिन्हा का खास माना जाता था. सिन्हा उन्हें सिंगापुर की नौकरी छुड़ाकर अपने साथ भारत ले आए थे. बाद में जब प्रसार भारती न्यूज़ सर्विस की शुरुआत हुई तो वही समीर कुमार इसके पहले सीईओ बन गए. जाहिर है आरके सिन्हा के हाथ खींच लेने के बाद हिंदुस्थान समाचार में कोई भविष्य न देखकर समीर कुमार ने पलटी मारी और प्रसार भारती का दामन थाम लिया. उनकी कहानी एक कुशल सर्वाइवर की कहानी है.

यहां से शुरू होती है प्रसार भारती न्यूज़ सर्विस के संघर्ष की कहानी. इतने बड़े पैमाने पर रिपोर्टरों का नेटवर्क होना एक बात है लेकिन एक पेशेवर समाचार एजेंसी के तौर-तरीकों के मुताबिक इतने कम समय में ढाल लेना दूसरी बात है. इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इतने बड़े ख़बरों के पूल के लिए जरूरी ग्राहक और साथ में वह बेसिक मैंडेट जिसके तहत प्रसार भारती न्यूज़ सर्विस शुरू की गई थी यानी प्रसार भारती के बजट से उस खर्च को कम करना जो वह पीटीआई और यूएनआई को बतौर सालाना सब्सक्रिप्शन दे रहा है.

आगे की पूरी लड़ाई इसी के इर्द गिर्द है. प्रसार भारती सालाना पीटीआई और यूएनआई को 15.75 करोड़ रुपए बतौर सब्सक्रिप्शन फीस अदा कर रहा था. इसमें से 9 करोड़ रुपया पीटीआई और शेष यूएनआई की फीस है. लेकिन हिंदुस्थान समाचार वाला प्रकरण शुरू होने के साथ ही साल 2018 में प्रसार भारती ने पीटीआई की फीस तर्कसंगत करने के नाम पर एकतरफा 25% की कटौती कर दी. तब से वह पीटीआई को सालाना 6.75 करोड़ की फीस भुगतान कर रहा है. पीटीआई इसके लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहा है.

मई-जून महीने में भारत-चीन के बीच सीमा पर विवाद शुरू होने के बाद प्रसार भारती ने पीटीआई के साथ जारी इस पुरानी अदावत का एक नया मोर्चा खोल दिया. भारत में चीन के राजदूत सुन विडांग्स का एक साक्षात्कार पीटीआई ने किया. चीनी दूतावास ने उस साक्षात्कार में से अपनी पसंद के तीन सवालों को अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर लगा दिया. इसी तरह पीटीआई ने चीन में भारत के राजदूत विक्रम मिस्री का एक इंटरव्यू प्रकाशित किया जिसमें वो चीन की एकतरफा घुसपैठ की कार्रवाई के लिए नतीजा भुगतने की बात कर रहे हैं. यह बयान प्रधानमंत्री के उस बयान को कटघरे में खड़ा करता है जिसमें उन्होंने स्वयं कहा था- “न तो कोई भारत की सीमा में घुसा है, न घुसा हुआ है, न ही हमारी कोई पोस्ट किसी विदेशी के कब्जे में हैं.”

इसे मुद्दा बनाते हुए प्रसार भारती न्यूज़ सर्विस के सीईओ समीर कुमार ने कड़े शब्दों वाला एक पत्र 27 जून को पीटीआई को भेजा. इसमें पीटीआई की कवरेज को देशविरोधी बताते हुए कहा गया, “ताजा कवरेज के मद्देनजर हम पीटीआई के साथ अपने संबंधों की पुन:समीक्षा कर रहे हैं. कहा जा रहा है कि यह भारत के राष्ट्रीय हितों से समझौता करने वाला और देश की सीमाई संप्रभुता को चोट पहुंचाता है.” पीटीआई ने इस पत्र की पुष्टि की है.

प्रसार भारती के भीतर और बाहर तमाम लोगों की छठीं इंद्री इस नोटिस से सक्रिय हो गई. आखिर नोटिस का पत्र पीबीएनएस के जरिए क्यों भेजा गया. जबकि पीटीआई की सेवाओं के सबसे बड़े उपयोगकर्ता आकाशवाणी और दूरदर्शन हैं. बीपीएनएस का सीधा पीटीआई से कोई पेशेवर संपर्क नहीं है. पीबीएनएस जो कि महज साल भर पहले शुरू हुई प्रसार भारती की इकाई है, वह इस तरह का आधिकारिक नोटिस कैसे और क्यों जारी कर रही है. जानकारों के मुताबिक इस तरह का कोई भी नोटिस प्रसार भारती के सीईओ शशि शेखर वेम्पति के दफ्तर से जारी होना चाहिए था. पीबीएनएस की अभी कायदे से एक वेबसाइट तक नहीं है. ले देकर उनका ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब पेज है.

यहां पर एफएम गोल्ड, जिससे हमने इस रिपोर्ट की शुरुआत की थी, का सिरा जुड़ता है. पीबीएनएस के सिर दोहरा बोझ है. एक तो उसे प्रसार भारती का बजट कम करना है जिसके लिए पीबीएनएस की स्थापना हुई है यानी पीटीआई और यूएनआई से मुक्ति. दूसरा अपनी समाचार एजेंसी के लिए नए ग्राहक और प्लेटफॉर्म तैयार करना. जिन खबरों का उत्पादन पीबीएनएस कर रही है उसे इस्तेमाल करने के लिए नए प्लेटफॉर्म की जरूरत है.

आकाशवाणी में कार्यरत एक पत्रकार कहते हैं, “ये खुद को जस्टिफाई करने का दबाव है. इतना सारा कंटेंट बनेगा तो कोई इसे इस्तेमाल करने वाला भी तो होना चाहिए. इन लोगों ने फिलहाल यही तरीका खोज निकाला है कि एफएम गोल्ड को 24 घंटे का समाचार स्टेशन बना दिया गया है. यह सरकार को भी मन मुताबिक है कि उसकी नीतियों की चर्चा 24 घंटे हो रही है. भले ही वहां पर स्तरीय कंटेट का अभाव है. नया प्रोडक्शन नहीं होने की वजह से एक ही प्रोग्राम बार-बार रिपीट होता हैं, उनमें किसी तरह की रचनात्मकता भी नहीं है. लेकिन सवाल यह है लोग कितना देर तक मोदीजी की तारीफ सुनेंगे. पहले गाना-बजाना के बीच छोटा सा न्यूज़ कैप्सूल आता था तो लोगों के बीच यह जबर्दस्त तरीके से लोकप्रिय था.”

यहां कई सवाल अनुत्तरित रह जाते हैं, मसलन पीटीआई की सेवाओं को समाप्त किए जाने के नोटिस पर प्रसार भारती ने क्या अंतिम निर्णय किया? क्या प्रसार भारती पीटीआई का सब्सक्रिप्शन खत्म कर रहा है? क्या पीबीएनएस एक पूर्णकालिक एकीकृत न्यूज़ एजेंसी के तौर पर काम करेगी? कौन-कौन इसके सब्सक्राइबर हैं? क्या एफएम गोल्ड के कर्मचारियों को फिर से बहाल किया जाएगा या फिर क्या एफएम गोल्ड को उसके पुराने रूप में बहाल किया जाएगा?

ये वो सवाल है जिनके जवाब सिर्फ दो लोग दे सकते हैं. प्रसार भारती के सीईओ शशि शेखर वेम्पती और पीबीएनएस के सीईओ समीर कुमार. हमने इन्हें कुछ सवालों की लिस्ट भेज रखा है, व्हाट्सऐप पर इन्होंने सवालों को पढ़ भी लिया है लेकिन अभी तक इनके जवाब हमें नहीं मिले हैं. फोन से संपर्क की कोशिशें भी नाकाम रही हैं. जवाब आने पर इस स्टोरी में उसे जोड़ दिया जाएगा !  साभार :अग्नि आलोक