अजनबी होते देश में नेहरू…………….

नेहरूजी की पुण्यतिथि पर सोशल मीडिया पर नेहरूजी छाये रहे, इस तरह उनको याद किया जाना अच्छा लगा | उन्हें उनके  सभी अविस्मरणीय कामों के लिए याद किया गया, जिनके लिए उन्हें याद किया जाना चाहिए | लेकिन पढ़ – पढ़ कर दिल डूबता भी रहा, कि नेहरू का बनाया कैसे लगातार खोता जा रहा है… नेहरू जैसे अजनबी होते जा रहे हैं या यह देश ही उनके लिए अजनबी – सा हो गया है | आज जवाहर लाल नेहरू को, उनकी शानदार विरासत को मेटने, विस्मृत करने की मुहिम छिड़ी हुई है , सरकार ने कोई कसर नहीं उठा रखी है… उनकी छवि धूमिल करने के लिए अनर्गल आरोप हैं, बेहूदगी की हद है… नेहरू ही नहीं उनके नाम -पहचान से जुड़ी हर चीज़ निशाने पर है… और ये कोई मामूली चीज़ें नहीं हैं… यह इस देश का स्वभाव, चरित्र, संस्कृति, अस्मिता, आंतरिक आत्मीयता है , जिन पर संकट आसन्न और संगीन है… संविधान, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संसद, स्वतंत्र – स्वायत्त निगहबान संस्थाएँ, मीडिया इनके सबके साथ ख़तरे में हिन्दुस्तान है, जिसे बड़े बलिदानों के बाद अर्जित किया गया और जतन से उसमें लोकार्पण, लोकाकांक्षा और लोक- प्रेरणा का भावावेशित समावेश किया गया… यह सब ध्वंस होने की कगार पर है ……

स्वतंत्रता के बाद हमने देश की विविधता भरी रंगीनियत का रास्ता चुना और उसे क़ायम रखने व मजबूत करने के भरपूर उपाय किये… यह अकेले जवाहरलाल का नहीं, पर अन्य किसी से भी ज़्यादा, यह उनका ही करिश्मा था और यह कोई छोटा कारनामा नहीं था कि तमाम इतर नाकामियों – बदहालियों के बावजूद हमने अपना आपा नहीं खोया | नेहरू ने आधुनिक , नये भारत के निर्माण का महास्वप्न देखा और लोकतंत्र, समाजवाद व धर्मनिरपेक्षता की कसौटियों पर उसे भरसक साकार करने की परियोजना बनायी | आज सवाल नेहरू एक व्यक्ति का नहीं, नेहरू एक प्रतीक का है … वैसे एक व्यक्ति का एक उज्जवल प्रतीक बन जाना कितनी असाधारण बात है… ‘वीर जवाहर’ से ‘जननायक’ और ‘युग पुरुष’ तक की यह यात्रा नेहरू को विराट बनाती है, यही कारण है कि ठिगने – नाटे लोग और बित्ते भर के नेता उनकी छवि धूसरित करने में कम से कम सत्तर सालों से तो लगे ही हैं, पर वे बाल भी बांका न कर पाये… और अब तो इस कुत्सित अभियान की बागडोर उन मोदी- शाह की जमात के हाथों में है, जिनके लिए शर्म , मर्यादा, लोकलाज, शोभनीयता दो कौड़ी के वाहियात शब्द हैं… वह व्यक्ति, वह छवि और उसकी जनमानस में स्मृति कितनी चमकदार – दमदार – पायेदार है कि धूमिल होती ही नहीं, मिटती ही नहीं… मामला कतई — कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी — का है | वैसे इन छुटभैयों को कौन बताये कि बड़े बनने के लिये मरना- खपना होता है , दूसरे के पांव काटकर आप बड़े नहीं बौने और बेवकूफ़ ही दिखते हैं | लेकिन संघ परिवार वाले सालों – साल से यही दिखने पर आमादा रहे हैं… नेहरू उनके शत्रु हैं , क्योंकि वे हमेशा उनका निषेध करते हैं, आज़ादी की लड़ाई में उनकी भूमिका पर उन्हें लताड़ते हैं… उनकी साज़िशों को बेनक़ाब करते हैं, नफ़रत का खेल नहीं खेलने देते, उनके पोंगापंथ को जगह देने से इंकार करते हैं, कट्टर राष्ट्रवाद को नकारते हैं, वे धार्मिक समेत सभी तरह के अलगाववाद का रास्ता रोककर खड़े हो जाते हैं… वे भारत के नये ‘ तीर्थों ‘ और ‘ वैज्ञानिक समझ’ की बात करते हैं…. उनकी मेलजोल, समावेशी और आधुनिक योजनाओं में संघियों को फलने- फैलने की गुंजाइश कम से कम रही | इसलिए नेहरू उनके सबसे बड़े दुश्मन बने हुए हैं… नेहरू की तरफ़दारी में कुछ आवाज़ें उठती रहीं पर चौतरफ़ा हमलों के आगे वे तूती ही थीं… कांग्रेस तक ने उल्टी करवट ले उनसे पीठ फेर ली… नेहरू ने ख़ुद मुकाबला किया और कर रहे हैं | उन पर हमले तेज़तर हैं, सारी बुराइयों की जड़ उन्हें कहा जा रहा है | एजी नूरानी ने बहुत पहले एक लेख लिखा था, ‘ संघ नेहरू से चिढ़ता क्यों है ‘ … इसी तरह एसवाई शारदा प्रसाद के एक लेख का शीर्षक ही यह था, ‘ इसे भी नेहरू पर मढ़ दीजिये ‘|
नेहरूजी के प्रति अपन में कम उम्र से ही आकर्षण ज़बर्दस्त था | घर में बैठक में उनकी बड़ी फ़ोटो थी और माहौल राजनीतिक था, पिता गणेश प्रसाद नायक कांग्रेस, फ़ार्वर्ड ब्लाक और समाजवादी खेमों से होते हुए सर्वोदय में थे…वे नेहरू के दीवाने थे… कांग्रेस में अनमने रह रहे द्वारिका प्रसाद मिश्र ( बाद में कांग्रेस से बाहर भी हुए) ने जबलपुर की तिलक भूमि तलैया की सभा में जब नेहरू के ख़िलाफ़ कुछ कहा तब नायकजी ने विरोध में आवाज़ लगायी और फिर ऐसा विरोध हुआ कि मिश्रजी को सभा छोड़ कर भागना पड़ा… दिलचस्प यह कि नायकजी कांग्रेस में नहीं थै… 1940 में वे एकबारगी कांग्रेस छोड़ चुके थे | 1964 की 27 मई को दसक साल का मैं पड़ोस में बैठा हुआ रेडियो पर गाने सुन रहा था कि अचानक गाना रोक कर नेहरूजी के निधन की सूचना दी गयी, मैं दसक मिनट सुनता रहा फिर बाहर आया… पड़ोस के एक घर में लड़की की शादी थी, महिलाएं देवी पूजकर आयीं थीं पर रमतूला और ढोल का बजना बंद किया जा चुका था | हवा में सनसनी थी… मैं थोड़ी ही देर में मुख्य शहर की ओर, कमानिया- फुहारा की ओर निकल पड़ा | ममेरे भाई और दोस्त राजेश नायक को लेता हुआ, जब हम शहर पहुंचे तब तक वहाँ भीड़ बढ़ गयी थी , और लोग आते जा रहे थे… श्याम टॉकीज के पास उपनगर गोरखपुर से आते कुछ समाजवादी चाचा दिखे… बहुतों की बांहों पर काला कपड़ा था… यहां से वहां तक दुख की अदृश्य-सी लहर थी | … मैंने पत्र – पत्रिकाओं से काटकर नैहरूजी का एक मोटा एलबम बनाया था | नेहरूजी के लिए पूरे शहर को ग़मगीन देख स्तब्ध था… बार -बार नेहरूजी की वह छवि कौंध जाती थी जो तीनक साल पहले कमानिया पर इत्र वाली दुकान के पास खड़े होकर देखी थी…. वे शायद गोविन्ददासजी के यहाँ बखरी से आ रहे थे, खुली कार पर | लोगों को मुस्कुराते हुए हाथ हिलाते वे फर्र से निकल गये और मैं उस छवि को जमा पूंजी की तरह सहेज कर मंत्रमुग्ध घर लौटा |
बाद में जब उनके बारे में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की यह उक्ति पढ़ी कि, ‘ जवाहरलाल का आना राजनीति में वसंत का आना था ‘ तो वह देखी छवि आंखों में तैर गयी | पर उस छवि के मायने खोले पत्रकार राजेन्द्र माथुर ने… एक लेख में उन्होंने लिखा कि, ‘ एक ज़माना था जब जवाहरलाल सड़कों पर ऋतुराज की तरह निकलते थे ‘| रज्जू बाबू के लेख नेहरूजी के बारे में समझ बढ़ाते हैं | कांग्रेस, नेहरू पर उन्होंने प्रचुर लिखा… उनकी अनोखी शैली में लिखे गये ये लेख बेहतरीन और बेहद दिलचस्प हैं | अनेक मुद्दों पर उनमें तीखी आलोचना है, पर असहमतियों के होते हुए भी वे नेहरू का ऐतहासिक- राजनीतिक महत्व कम नहीं करते बल्कि तार्किकता के साथ उसे रेखांकित करते हैं | उनका इरादा यथासम्भव सही परिप्रेक्ष्य और दृष्टिकोण देने का रहता है | वे नेहरू के बरक्स किसी को कम नहीं आंकते न अनदेखा करते हैं| डॉक्टर लोहिया की मृत्यु पर लिखे लेख में उन्होंने लिखा, ‘ राममनोहर लोहिया हमारे प्रजातंत्र के उपवन में एक विरल जाति के फूल थे… ऐसे दुर्लभ फूल सचमुच प्रजातंत्र में ही पनप सकते हैं, जहाँ हर कलम को ( नेहरू का) गुलाब होने की आज्ञा नहीं दी जाती| इस उपवन में कैक्टस भी उपयोगी है और महान है | प्रजातंत्र में हज़ारों फूलों का स्वागत इसलिए किया जाता है कि गुलाब की सुंदरता के बारे में हम कैक्टस या कमल या सूरजमुखी की राय जान सकें और कैक्टस के ऊबड़खाबड़पन के बारे में गुलाब की |’ नेहरू की मृत्यु के ढाई महीने बाद ही एक लम्बे लेख में उन्होंने सवाल उठाया, ‘ क्या हम जवाहरलाल नेहरू से कभी मुक्त हो सकेंगे? हिन्दुस्तान की एक बुराई यह है कि हम कभी अपने महापुरुषों से मुक्त नहीं हो पाते , इसलिए हम कभी उनका मूल्यांकन नहीं कर पाते और न उनकी सही तोर पर इज़्ज़त कर पाते हैं| अगर हम नेहरू का सामना कर सकें तो उनकी विरासत का काफ़ी बड़ा हिस्सा हमारी इतिहास की धारा में घुलमिल जाएगा |’ इसी लेख में वे नेहरू के जीवन को एक लम्बा स्वगत भाषण बताते हुए कहते हैं कि नेहरू के कम्युनिकेशन के भी दो स्तर थे | या तो वे अकेलेपन में अपने आप से बातें किया करते थे या फिर वे एक दो लाख की भीड़ से बातें करते थे |
माथुर साहब लिखते हैं, ‘ नेहरू में एक महान बुद्धिजीवी बनने की भले ही कितने सम्भावना रही हो , लेकिन ज़िन्दगी भर जनता को सम्बोधित करने के कारण नेहरू देश के सबसे बड़े प्राथमिक शिक्षक बन गए | भारत जैसे अपढ़ देश के कोने- कोने में दौरा करके नेहरू ने जनता को राजनीति का क.ख.ग. सिखाया, प्रजातंत्र सिखाया , योजना के मूल तत्व सिखाए, समाजवाद सिखाया | यह निश्चित ही एक बहुत बड़ा काम था और नेहरू के ही बूते का था… राजनीतिक शिक्षण द्वारा समाज परिवर्तन का जितना बड़ा कार्यक्रम अकेले नेहरू ने हाथ में लिया उतना शायद दुनिया के किसी नेता ने नहीं लिया होगा |’ नेहरू की जन्मशती जब मनी तब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, रज्जू बाबू को इससे उलझन थी … वंश की निरंतरता का प्रश्न था, फिर समारोहों में कितनी ईमानदार कृतज्ञता है और कितना सरकारीपन, इसका पता ही नहीं चलने वाला था | जन्मशती के दिन प्रकाशित लेख ‘ नेहरू के बिना हम अजनबी देश में होते ‘ मेंं उन्होंने लिखा, ‘ इस बाधा के बावजूद यदि हम नेहरू शताब्दी पूरे साल भर नहीं मनाते तो यह भी एक जाहिल एहसानफ़रामोशी होती , क्योंकि बीसवीं सदी में गांधी के बाद यदि किसी एक हिन्दुस्तानी का इस देश की याददाश्त पर हक़ और क़र्ज़ है, तो वह शख़्स जवाहरलाल नेहरू ही है |’ लेख में आगे वे स्वतंत्रता के पहले और बाद में उनकी भूमिकाओं पर गौर करते हुए लिखते हैं, ‘ नेहरू यदि आज़ादी के आंदोलन के दिनों में गांधी के सिपाही न होते तो हमारे स्वतंत्रता आंदोलन का नक्शा अलग होता | और यदि आज़ादी के बाद वे सत्रह वर्षों तक देश के प्रधानमंत्री नहीं होते, तो भारत का सामाजिक और राजनीतिक भूगोल वह नहीं होता, जो आज है | तब इस देश की राजनीति के नदी, पहाड़ और जंगल सब अलग हो जाते, और हम मानो एक अलग ग्रह पर सांस ले रहे होते | . . . जवाहरलाल नेहरू जैसा सिपाही अगर गांधी को आज़ादी के आंदोलन में नहीं मिलता , तो 1927 – 28 के बाद भारत के नौजवानों को अपनी नाराज़ और बगावती अदा के बल पर गांधी के सत्याग्रही ख़ेमे में खींच – खींच कर लाने वाला और कौन था ? नेहरू ने उन सारे नौजवानों को अपने साथ लिया जो गांधी के तौर तरीक़ों से नाराज़ थे , और बार – बार उन्होंने लिखकर, बोलकर अपनी असहमति का इज़हार किया | उन्होंने तीस की उस पीढ़ी को ज़ुबान दी, जो बोलशेविक क्रांति से प्रभावित होकर कांग्रेस के बेज़ुबान लोगों को लड़ाकू हथियार बनाना चाहती थी | लेकिन ये सारा काम उन्होंने कांग्रेस की केमिस्ट्री में रहते हुए और उसका सम्मान करते हुए किया | . .. गांधी से असहमत होते हुए भी नेहरू ने गांधी के सामने आत्मसमर्पण किया, क्योंकि अपने को न समझने आने वाले जादू के सामने अपने को बिछा देने वाला भक्तिभाव नेहरू में शेष था, और अपने अकसर बिगड़ जाने वाले पट्ट- शिष्य को लाड़ करना गांधी को आता था | नेहरू और गांधी के इस द्वंद्वात्मक सहयोग ने आज़ादी के आंदोलन के ताने- बाने को एक अद्भुत सत्ता दी और गांधी का जादू नेहरू के तिलिस्म से जुड़कर न जाने कौन – सा ब्रहास्त्र बन गया ! खरा और सौ टंच सत्य जब दूसरे सौ टंच सत्य के साथ अपना अहं त्यागकर मिलता और घुलता है, तब ही ऐसे यौगिक बनते हैं जैसे गांधी और नेहरू के संयोग से बने | इसकी तुलना आज के राजनीतिक जोड़तोड़ से कीजिये तो आपको फ़र्क़ समझ में आ जायेगा | ‘
स्वतंत्रता के बाद नेहरू के हाथों में सत्ता की बागडोर होने के महत्व को माथुर साहब इस तरह देखते हैं, ‘ सबसे पहले तो इसी बात का श्रेय नेहरू को दें कि उन्होंने अपने चरित्र और विचारों के विपरीत कांग्रेस को बनाये रखा | कांग्रेस को क़ायम रखकर नेहरू ने विलक्षण समझ का परिचय दिया | इस माने में नेहरू ने स्वतंत्रता के बाद कांग्रेस की सार्थकता का पुनराविष्कार किया | उन्होंने पाया कि कांग्रेस से टूटी कोई एकाँगी पार्टी देश को जोड़े रखने और आगे ले जाने का काम नहीं कर पायेगी | नेहरू के बिना क्या भारत वैसा लोकतांत्रिक देश बन पाता जैसा कि वह आज है? आपको 1947 के किस नेता में लोकतंत्र की बुनियादी आज़ादियों के प्रति वह सम्मान नज़र आता है , जो नेहरू में था? हरिजन से रक्त की एकता महसूस करने वाले कितना नेता थे? धर्म दंगेके ढकोसलों से नफ़रत और सच्ची रूहानियत के प्रति लगाव कितनों में था ? विज्ञान के प्रति इतना भोला उत्साह आप उस ज़माने में कहां पाते हैं ? भारत के आर्थिक विकास के बारे में क्या किसी और नेता के पास दृष्टि थी? भारत की सारी विविधताओं को इतना स्नेह क्या किसी और नेता ने दिया ? नेहरू नहीं होते तो विभाजन के तुरंत बाद क्या भारत हिन्दू राष्ट्र बनने से बच पाता ? … भारत 15 अगस्त के बाद लोकतंत्र होगा ये इस देश की जन्मपत्री में तो नहीं लिखा था | अनुमान लगाना व्यर्थ है , लेकिन सोचिए कि यदि सरदार पटेल को स्वतंत्रता के बाद सत्रह साल तक जवाहरलाल नेहरू जैसी लोकप्रियता और उनका पद मिला होता तो क्या वे माओ त्सेंग तुंग या स्टालिन के भारतीय संस्करण नहीं हो जाते ? सुकर्णो, नासर, टीटो, अंक्रूमा ने अपनी लोकप्रियता का क्या किया ? देश के धीमेपन से असंतुष्ट जवाहरलाल के सामने क्या ये विकल्प नहीं रहा होगा कि लोकतंत्र को एक तरफ़ रखकर कुछ साल चाबुक चलाया जाए ताकि देश तेज़ दौड़कर एक बार सबके साथ आ सके ? यदि वे चाबुक चलाते तो क्या देश में एक नशीला उत्साह पैदा नहीं होता, जिसके रहते लोकतंत्र एक जनद्रोही हरकत नज़र आती ? लेकिन जैसे गांधी के सामने नेहरू ने अहंविहीन आत्मसमर्पण कर दिया था, उसी तरह भारत के लोकतंत्र के सामने उन्होंने हमेशा अहंविहीन आत्मसमर्पण किया |
एक लेख ‘ गहरी नींद के सपनों में बनता हुआ देश ‘ में वे लिखते हैं ‘ नेहरू से ज़्यादा धर्मनिरपेक्ष विज्ञान – पक्षधर , आधुनिकता- चेतन नेता तो शायद ही इस सदी ने पैदा किया हो | लेकिन अगर हम जवाहरलाल के जुनून की तलाश करें तो क्या पाते हैं ? हम पाते हैं कि यह शख़्स भारत के एक -एक आदमी का चेहरा यह टटोलते हुए पढ़ रहा था कि उस पर भारतमाता की छाप कहां है ? कौन- सा है वह सांस्कृतिक सांचा, जिसमें सदियों तक हिन्दुस्तान के लोग ढलते रहे और जो हिन्दू – मुसलमान ,एंग्लो- इंडियन, बेने- इजराइली, शक, कुशाण, हूण, द्रविड सबको एक- सा बनाता चला गया | विज्ञान का हामी जवाहरलाल जीवन- भर भारत की कविता खोजता रहा, क्योंकि वह जानता था कि देश यदि कविता नहीं है, तो कुछ नहींं है| दुनिया का एक ऐसा देश बता दीजिए जिसकी नींव कविता पर नहीं, बल्कि रूखे- सूखे गद्य पर टिकी हो| एक भी नहीं मिलेगा | लेकिन भारत में ऐसै लोग हैं, जो कहते हैं कविता ने देश को तोड़ा है, इसलिए जोड़ने के लिए हमें गद्य चाहिए, चतुराई चाहिए, सौदेबाज़ी चाहिए | … नेहरू ने गंगा के बारे में, हिमालय के बारे में, भारत की मिट्टी के बारे में भी लिखा है, उसे ज़रा एक बार फिर पढ़िए | गंगा और हिमालय का नाम सुनकर जो झनझनाहट नेहरू को होती थी, वह क्या एक हिन्दू प्रतिध्वनि थी ? नेहरू ने अपने देश को सौंदर्य – प्रतीकों, प्रेरणा- प्रतीकों और स्मृति – प्रतीकों में देखा | इन सबने उन्हें बिजली दी | इस बिजली के बग़ैर कोई हिन्दुस्तान में रह कैसे सकता है ! जब सिंहासन के प्रश्न नहीं थे, तब मध्य युग के हिन्दू और मुसलमान कवि इन्हीं प्रतीकों के माध्यम से हिन्दुस्तान पहचानते थे | ‘… नेहरू की धर्मनिरपेक्षता के बारे में वे लिखते हैं , ‘ जब नेहरू इसकी चर्चा करते थे, तब वे एक नया इनसान भारत की ज़मीन पर जन्मते देखना चाहते थे | नेहरू का नया मनुष्य रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रसिद्ध कविता का मनुष्य है| लेकिन जो युगपुरुष एक नई मनुष्यता का सपना पालता है, उसे समझ ही नहीं आता कि आदमी संकीर्ण क्यों है, छुद्र क्यों है, अंधविश्वासी क्यों है, नकली कसौटियों पर अपने- आप को बांटने वाला और लड़ने वाला क्यों है, नफ़रत से अंधा होने वाला क्यों है ? , हर मसीहा की कोशिश के बावजूद नया मनुष्य बार – बार पुराना होना क्यों पसंद करता है ? हम नहीं जानते कि गांधी और नेहरू के होने का कोई असर हम पर पड़ा है या नहीं और हम नये इनसान बने हैं या नहीं | लेकिन हम जैसे हैं, उससे बहुत बुरे अगर नहीं हैं, तो इसका श्रेय शायद उन्हीं के प्रयासों को देना होगा | ‘
राजेन्द्र माथुर के ये लेख 1970 -80 के दशक के हैं..
पर उनमें ख़तरों की जगहों के साफ़ इशारे हैं | वे जगहें अब असली ख़तरों से भर चुकी हैं… उस समय जो स्थितियां और संकट कल्पनातीत थे , उनसे इस समय देश घिरा हुआ है| लोकप्रियता पर तानाशाही सवार है,धर्मान्धता, कट्टरता, निष्ठुरता की धुत्त उछाह छायी है , लोकतंत्र और मूलभूत आज़ादियों की बातें देशद्रोह माना जाने लगा है…. संकट विकट है… ऐसे में नेहरू बहुत काम के है! वे लोकतंत्र , विविधता, धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े प्रतीक और प्रेरणा हैं साभार : मिडिया रिपोर्ट