‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक 80 ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘धारावाहिक की 80 वी कड़ी ..

 

सप्तमोऽध्याय – ‘ज्ञान-विज्ञान योग’

श्लोक  (१३)

सम्पूर्ण जगत मायाश्रित, ये सत, रज, तम के आधीन रहा,

गुणमय भावों से मोहित, जग, गुण के प्रभाव के साथ बहा ।

मैं परे गुणों से रहा पार्थ, मुझको न जगत यह जान सके,

अविनाशी है मेरा स्वरूप, मोहित न मुझे पहिचान सके ।

 

जो भाव अनित्य दुख पूर्ण रहे, उनमें भूले देहाभिमानी,

सुख-हेतु, नित्य समझे उनको, भूले मुझको देहाभिमानी ।

सुख-भोग विषय संग्रह उनका, जीवन का बनकर लक्ष्य रहे,

कर्त्तव्य दूसरा भी कुछ है, ऐसा वह कभी नहीं समझे ।

 

उत्पन्न वारि से जो होती, सेवार वारि को ढंक लेती,

या बदली सघन हुई नभ की, आच्छादित नभ को कर देती ।

मिथ्या होता है स्वप्न मगर, निद्रा में वह सच लगता है,

पर नींद न जिसकी टूटी हो वह क्या यह तथ्य समझता है।

 

माया मेरी ही पर्दा बन, मेरे स्वरूप को ढँक लेती,

प्राणी मुझको पहिचान सके, ऐसी क्षमता को हर लेती ।

कच्चा मिट्टी का घट पककर, मिट्टी से मेल नहीं खाता,

मोती पानी से बनता पर, तदरूप नहीं होने पाता ।

 

माया से बने जीवधारी, सब मेरे अंग रहे अर्जुन,

विषयान्ध हुए मैं मेरे में, मुझको न जान पाए अर्जुन ।

मैं सबसे ऊपर अविनश्वर सबकी आत्मा में वास करूँ,

पर भ्रम से ग्रसित रहे जो मन, उनको सदैव अज्ञात रहूँ ।

श्लोक (१४)

त्रिगुणात्मक यह मेरी माया, यह मेरी दैविक शक्ति रही,

निश्चय ही यह अति दुष्कर है, आसान न इससे मुक्ति रही ।

माया से जो आच्छादित मन, वह मुक्त नहीं होने पाता,

लेकिन शरणागत हुआ जीव, माया-बन्धन से तर जाता ।

 

हैं प्रबल लहरियाँ माया की, होता है कठिन पार करना,

भीतर-बाहर विकराल जन्तु, घटती अनजानी दुर्घटना ।

आता न बाहुबल काम,न आती काम, किसी की चतुराई,

सदगुरु का जिसको हाथ मिला, उसकी नौका तट को पाई

श्लोक (१५)

आते वे मेरी शरण नहीं,माया ने जिनका ज्ञान हरा,

हो गई आसुरी वृत्ति और,जिनने अपना स्वभाव बदला ।

वे मूढ़, दुष्कृती पापात्मा, रहते प्रवृत्त दुष्कर्मों में,

वे रहे नराधम, उन सबकी रुचि रहती नहीं स्वधर्मों में

 

माया से भ्रमित बुद्धि जिनकी, माया ने जिनका ज्ञान हरा,

आसुरी स्वभाव हुआ उनका, उसका ही उनमें जोर बढ़ा ।

वे निम्न कोटि के मनुज रहे, दूषित कर्मों में रुचि वाले,

वे मुझे नहीं भजते अर्जुन,जो नीच कर्म चिन्तन वाले ।

 

मतिमन्द रहे विषयों में रत, आलस्य, प्रमाद भरे जी में,

जन्मों जन्मों के पापों का, जो धारण किए प्रभाव जी में।

विपरीत भावना और अश्रद्धा का, जो केवल भाव लिए,

दुष्कृती लोग वे मूढ़ हुए,जग में केवल बन असुर जिए ।

 

वे सदा पाप की ओर बढ़ें, सोचें न कभी जीवन क्या है?

उद्देश्य रहा क्या जीवन का,उनका अपना स्वरूप क्या है ?

वे परम नास्तिक हुए असुर, मनुजों में बनकर अधम रहे,

उनका चिन्तन, उनकी करनी, उनके अघपट को सघन करे ।

 

वे मूर्ख, दुष्कृती, भ्रमित बुद्धि, वे असुर, नराधम, पापात्मा,

आ सकें न मेरी शरण कभी, कलुषित मन को न दिखे आत्मा ।

वे अहंकार के विकृत रूप, उपकरण न मेरे बन पाते,

अर्जुन वे नहीं मनोवेगों को, अपने वश में कर पाते।

 

जो नैतिक हुआ न जीवन में वह आध्यात्मिक न कभी होता,

आध्यात्मिक हुए बिना कोई, सच्चे मन से न मुझे भजता ।

जीता न तमोगुण को जिसने, जिसने न रजोगुण को जीता,

सात्विक गुण में जो रमा नहीं, उसको क्या गुणातीत दीखा? क्रमशः…