मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद
किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की दूसरी कड़ी 20 वी कड़ी ..
द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’
‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’
श्लोक (२८)
उत्पत्ति पूर्व सारे प्राणी, थे निराकार कुन्तीनन्दन,
आकार प्राप्त करते केवल, जब जन्म किया करते धारण ।
मरने के बाद पुन: प्राणी, पहिले सा होता निराकार,
बस दशा बीच की यह केवल, जिसका होता अपना प्रकार ।
बस जन्म-मरण के बीच पार्थ, संसार दिखाई देता जो,
यह स्वप्न रहा जो दीख रहा, ज्यों निद्रा में डूबे जन को।
साकार वस्तुएँ सारी ये, माया विरचित आकार रहा,
है आत्मतत्व में भासमान, जल पर तरंगवत जो उभरा।
या सोना अलंकार बनकर, दिखलाता अपने विविध रुप,
माया की ही छाया सारी, माया की सारी चटक-धूप
सम्बन्ध शरीरों का केवल, यह मध्यावधि का मृषा रहा,
हो ज्ञात जिसे वह शोक करे, अर्जुन क्या जाये उसे कहा?
जिसका यथार्थ अस्तित्व नहीं,तुम उसके लिए विफल क्यों हो ?
जो अक्षय है, जो ब्रम्ह रहा, तुम उससे पार्थ विलग क्यों हो?
रुचि परम तत्व में जागे तो परित्याग विषय का हो जाता,
वैराग्य सिद्ध हो जाता है, आचार-विचार बदल जाता ।
श्लोक (२९)
ब्रह्मज्ञ साधकों का अन्तस, हो जाता है थिर,
परम शान्त, माया रुपी संसार उन्हें करने पाता है नहीं भ्रान्त ।
जाना जिसने ब्रह्मज्ञ वही वर्णन न ब्रम्ह का कर पाये,
देखा जिसने वह देख उसे, आश्चर्य बोध से भर जाये ।
करते करते गुणगान थके, जाने कितने साधक ज्ञानी,
हो गये शान्त कितने जाने, सुन गुण महिमा देहाभिमानी ।
यह तत्व बसा जिसके मन में, हो गया उसी में वह विलीन,
लौटा न प्रवाह नदी में, फिर गिरकर नदीश में हुआ लीन ।
जो कर लेते साक्षात्कार, वे योगीजन होते महान,
सम रुप बुद्धि हो जाती है, सत चित में वे करते विराम ।
दुनिया की कोई वस्तु नहीं, जिससे वह तत्व करे समता,
हर वस्तु जगत की नाशवान, होती अक्षय उसकी क्षमता ।
इसलिये देखने वाले ने, आश्चर्य भाव से ही देखा,
इसलिये लेखने वाले ने, कह नेति नेति इसको लेखा ।
आश्चर्य भाव में डूब गया, जिसने इसका गुणगान सुना,
जो पात्र नहीं बनने पाया, वह समझ न पाया, बहुत गुना ।
अद्भुत है और अलौकिक है, आत्मा का बोध करा पाना,
दर्शन की त्रिपुटी नहीं रहे, तब होता इसे देख पाना ।
इसमें रहकर इससे बाहर आना, फिर संभव नहीं रहा,
कहने वालों ने कहा बहुत, पर शेष बहुत अनकहा रहा । श्लोक (३०) क्रमशः…