
पन्द्रहवाँ अध्याय पुरुषोत्तम योग (परम पुरुष का योग)
किस तरह त्यागता देह जीव, किस तरह देह में वह रहता,
किस तरह देह को वह भोगे, जो मायाश्रित सक्रिय रहता।
इसको न मूढ़मति जान सके, जाने तो केवल ज्ञानी जन,
जो ज्ञान चक्षु से देखे सब, अनुभव में लाये हे अर्जुन।-10
योगी जन करते यज्ञ बहुत, तब आत्मज्ञान पार्ने पाते,
बिन आत्मज्ञान के तत्व पार्थ, देहान्तर का न समझ पाते।
आत्मा शरीर से भिन्न रहा, तन बदल बदलकर भोग करे,
अज्ञानी इसे न देख सकें, ज्ञानी इसको प्रत्यक्ष लखे।-11
जो तेज समाया दिनकर में, कर रहा जगत को आलोकित,
जो तेज चन्द्रमा में बसता, करता है अखिल भुवन भासित।
जो तेज अग्नि में रहता, बन रहा चेतना जीवन की,
यह सब मेरा ही तेज समझ, चेतनता जग जीवन क्रय की।-12
करके प्रवेश सब लोकों में, मैं ही उनको धारण करता,
लोकों के सारे जीवों का, जीवन समस्त मुझसे चलता।
तरू पौधे सभी वनस्पतियाँ, मेरे द्वारा सींची जाती,
मैं रहा चन्द्रमा अमृतमय, मुझसे ही वे पोषण पाती।-13
मैं अनल वैश्नावर बनकर, हूँ अग्नि उदरगत प्राणी की जो भक्ष्य,
भोज्य अरू चोष्य लेह्य, भोजन का नित पाचन करता।
मैं प्राण वायु में वैसा ही, जैसा अपान में बसता हूँ,
उत्पन्न न केवल अन्न करूँ, मैं पचा उसे रस बनता हूँ।-14 क्रमशः…