
षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’
श्लोक (४६)
गुरु कहते जितने योग रहे, सब एक दिशा में जाते हैं,
कहते हैं जिसे ‘समत्व-योग’ ये उसको प्राप्त कराते हैं ।
निष्ठाएँ ज्ञान-कर्म की दो, हैं, ध्यान भक्ति इनके साधन,
है ज्ञान प्रमुख या कर्म प्रमुख, कर रहे नाम का निर्धारण ।
यह कर्म योग का ही तल है, कहते हैं जिसको भक्ति योग,
जब भक्ति प्रधान कर्म होता कहलाता है वह भक्ति योग ।
या जहाँ प्रधान कर्म रहता वह कर्मयोग कहलाता है,
जो रूप कर्म करता धारण, वह नाम वही पा जाता है ।
दोनों निष्ठाओं में होता है, सदा सहायक ध्यान योग,
वह ज्ञान योग को प्रबल करे, बल पाता उससे कर्म योग ।
आधार अभेद बुद्धि का हो, तो ध्यान ज्ञान को सबल करे,
या भेद-बुद्धि से किया ध्यान, कर्मों में नव उत्साह भरे ।
तपसी तप करता निर्जन में, उपवास व्रतों का पालन कर,
सन्यासी करे साधना जो, जग के जंजालों को तजकर ।
ज्ञानी भी मुक्ति प्राप्त करने, अपने कर्मों का त्याग करे,
या लिए कामनाएँ फल की, संसारी अपने यजन करे ।
बहु भांति कामनाएं लेकर जो योग मार्ग पर चलते हैं,
हे अर्जुन कितने ही प्रकार से मुझको योगी भजते हैंम
ये रहे तपस्वी, सन्यासी, ज्ञानी, पंडित, साधन करते,
पर योगी वह इनके शिखरों के ऊपर शिखर रहा गढ़ते
योगी है बड़ा तपस्वियों से, बह रहा पंडितों से बढ़कर,
यह कर्मकाण्डियों से बढ़कर, यह योग पार्थ तू धारण कर ।
यह योग भक्ति का योग रहा, इससे न योग बढ़कर कोई,
‘हे पार्थ,योग यह सर्वश्रेष्ठ, तू धारण कर ले इसको ही ।
श्लोक (४७)
तप, ज्ञान, कर्म से ऊपर है यह भक्ति योग सुन ले,अर्जुन,
इसमें तीनों का सार निहित, यह भक्ति योग अनुपम अर्जुन ।
सबके हृदयों में मेरा ही दर्शन नित भक्त किया करता,
वह दिव्य भाव में लीन, सुरक्षित मुझसे, जग जीवन जीता ।
अन्यान्य योगियों में योगी, जो श्रद्धा विनय परायण हो,
नित मेरा चिन्तन किया करे जो मुझमें भक्ति परायण हो ।
सेवा में जो संलग्न रहे, वह मुझसे युक्त रहा योगी,
हो पूर्ण रूप भावित मुझसे, अर्जुन वह परम श्रेष्ठ योगी ।
वह सबसे बढ़कर सबसे प्रिय अर्जुन जो मेरा भक्त रहा,
मैं उससे प्रेम किया करता मैं भक्तों का अनुरक्त रहा ।
।卐। इति आत्म संयम योगो नाम षष्ठोऽध्यायः ।卐 ।