‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक .. 68

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 68 वी कड़ी ..

षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’

श्लोक (२३) 

यह योग रहा जुड़कर, जिससे योगी बन जाता ब्रह्म रूप,

संयोग न करता वह दुख से, वह रहा परम आनन्दरूप ।

दृढ़ निश्चय से उत्साह सहित, धीरज धर इसका हो पालन,

कर्तव्य रहा यह योग, चित्त में पुरुष करे इसको धारण ।

 

श्रद्धा विश्वास रखे साधक, समझे सीखे उसका विधान,

शास्त्रों आचार्यों सिद्धों के प्रति, अपने मन में रखे मान ।

परमात्म तत्त्व को पाने का विश्वास अटल ले ध्यान करे,

कर्तव्य समझ तत्परता से वह योग सिद्धि की ओर बढे ।

 

योगाभ्यास से शनैःशनैः, विषयों से अनासक्ति होती,

पहुँचे समाधि में जब योगी, अन्तस में जगती है जोती ।

दिव्येन्द्रिय आस्वादन करती, आल्हाद योग के साधन का,

चिति शक्ति-जागती योगी में, बनकर जीवन की सार्थकता ।

 

मन रहे लक्ष्य पर, चित्त शान्त, आत्मा आत्मा में वास करे,

यह रही परमता साधक की, एकान्त जहाँ विश्राम मिले ।

परमात्मा का आनन्द मिले तो एक रूप वह हो जाता,

जो ऊबा नहीं साधना से वह योग सिद्धि निश्चित पाता ।

श्लोक (२४)

अभिप्रेत रहा यह योग पार्थ, श्रद्धा, दृढ़ता से पालन हो,

आशा न तजे, धीरज धारे, बाधा का स्वयं निवारण हो ।

तज मिथ्याचार अहम अपना कर चले पुरुष निग्रह मन का,

सम्पूर्ण इन्द्रियों को योगी, अपने वश में करके चलता।

 

निःशेष कामनाएँ हो ले , इसलिए रुके संकल्प प्रथम ,

संकल्प करे उत्पन्न कामनाओं को,वह दुख का उद्गम ।

जैसे बर्तन से घी निकाल लें,पर चिकनाई रह जाती,

सूक्ष्म अंश भी बचे न कामना का तब बात सँवर पाती ।

 

इन्द्रियाँ स्वभाव से विषयों में, अपने अपने करतीं विचरण,

यह होता सम्भव तभी साथ, जब उनके जुड़ जाता है मन ।

दुर्बल मन को खींचे रखती है सभी इन्द्रियाँ अपनी ओर,

पर बुद्धि निश्चयात्मक खींचे रखती है बहके मन की डोर ।

श्लोक (२५)

दृढ़ निश्चय से धीरे धीरे, विश्वास सहित वह यत्न करे,

फिर बुद्धि योग से सहज दशा, पाये, समाधि में वह उतरे ।

बस आत्म रूप चिन्तन में ही संलग्न रखे अपने मन को,

अन्यत्र न कहीं भटकने दे, मन को या मन के चिन्तन को ।

 

विषयों का चिन्तन करना, यह अभ्यास पुराना मन का है,

यह नई बात के लिए, बड़ी कठिनाई से ही मुड़ता है।

जैसे भी हो अभ्यास नया, करना सीखे साधक का मन,

धीरे धीरे दृढ हो जाता, साधक मन में प्रभु का चिन्तन ।

 

होकर निरुद्ध परमात्मा में, जब तक तदरूप न हो जाता,

साधक का साधन-ध्यान सभी तब तक अपूर्ण ही कहलाता

निर्विषय करे मन को पहिले, त्यागे सत्ताओं के स्वरूप,

बस एक उपाय करे, प्रभु की सत्ता का मन में भरे रूप

 

फिर उसी भाव में लीन रहें ,चिन्तन हो बस परमात्मा का ,

मानो प्रकाश पाया उसने, अपनी ही विकसित आत्मा का ।

तब दृश्य-प्रपंच होते विलीन, जो बच रहता सो सत्य वही,

करती अभाव जो वृत्ति, अभाव में खो जाती है वृत्ति वही ।

श्लोक (२६)

जिस जिस कारण से विचलित हो जिन जिन विषयों में भटके मन,

रोके चञ्चलता, अस्थिरता, लौटाकर लाये अपना मन ।

निश्चय संयम से खींच उसे सन्निकट आत्मा के लाए,

आत्मा के आश्रित करे उसे, देखे वह फिर न भटक पाए ।

 

उच्छृंखलता यदि करता मन,तो उसको रोके दृढ़ता से,

समझे उसका बहुरूपियापन, हो नहीं प्रभावित अभिनय से ।

साधक जो रहता सावधान, मन उसे न मूर्ख बना पाता,

मानो हताश जब हो जाता वह आज्ञाकारी बन जाता । क्रमशः…