‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक .. 66

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘गीताज्ञानप्रभा’ ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।
उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला ‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 66 वी कड़ी ..

षष्ठोऽध्यायः – ‘आत्म संयम योग’ अध्याय छः- ‘सच्चा योग और कर्म एक है’

श्लोक (१९)

निर्वात दीप निष्कम्प जले, वैसा हो जाता है योगी,

वश में जिसने कर लिया चित्त, जुड़ आया आत्मा से योगी।

आत्मा के अन्तदर्शन से,भ्रम-मोहजल सब हट जाते,

ज्यों दीप प्रज्ज्वलित होने पर, परदे न तिमिर के रह पाते ।

 

योगी की सधे योग सेवा, तो चित निरुद्ध हो जाता है,

उपरत हो जाता वह जग से, ऊँचे तल तक उठ जाता है।

एकाग्र चित्त पाता प्रवेश, आत्मा में शान्ति लाभ करता,

देखे आत्मा में आत्मा को, आनन्द रहे उसका बढ़ता ।

 

दीपक की ज्योति अकम्प जले, उस जगह न होती वायु जहाँ,

योगी का ध्यान अडिग रहता, होता है संयंत चित्त जहाँ ।

वह आत्मतत्त्व में लीन रहे,ज्यों दीपक वायु रहित थल में,

विचलित न ध्यान होने पाता, जब चंचलता न रहे मन में ।

श्लोक  (२०)

योगाभ्यास के पालन से, जब चित्त संयमित हो जाता,

निर्मलता मन में आ जाती, इन्द्रिय व्यापार सिमट जाता ।

तब शुद्ध चित्त में आत्मरूप, का करता है योगी दर्शन,

अनुभूति दिव्य होती उसकी, होता है सुख का आस्वादन।

 

योगी को सधे योग सेवा, तो चित निरुद्ध हो जाता है,

उपरत हो जाता वह जग से, ऊँचे तल तक उठ जाता है।

एकाग्र चित्त पाता प्रवेश, आत्मा में शान्ति लाभ करता,

देखे आत्मा में आत्मा को, आनन्द रहे उसका बढ़ता ।

 

हो आत्म तत्व का सही बोध, करना होता उसका चिन्तन,

केन्द्रित करके रखना होता, बारीक बिन्दु पर अपना मन ।

फिर ध्यान बिन्दु पर सहज हुआ, सधने लगता है एकाकी,

उस ध्यान भूमि पर चंचलता मन की, फिर नहीं ठहर पाती ।

 

अपनी रुचि भाव भावना से, साधक पहिले चिन्तन करता,

उसके चिन्तन का भावरूप ही, ध्यान लोक उसका रचता ।

यह ध्यान इन्द्रियों से होकर जाता है लोक अतीन्द्रिय तक,

इसमें सुख रहा इन्द्रियों का, पहुँचे जो परे इन्द्रियों तक ।

 

अभ्यास ध्यान का कैसे हो जो करवाए साक्षात्कार,

संकल्प रहित मन को करके, फिर करे धारणा इस प्रकार ।

वह पूर्णब्रह्म परमात्मा है,जीवात्मा उसका अंश रहा,

उसके दर्शन बिन जीवात्मा, यह माया के आधीन रहा ।

 

वह ईश्वर का भी ईश्वर है, बस वही मात्र परिपूर्ण रहा,

सत वही रहा, चित वही रहा, केवल वह ही आनन्द रहा ।

उसका यह ज्ञान उसी को है इसलिए कि ज्ञान स्वरूप वही,

वह सब में है, सब उसमें हैं, परिव्याप्त रहा सर्वत्र वही

 

वह रहा सनातन निर्विकार, वह अकल अनीह, अभेद रहा,

बह रहा असीम अपार अतुल, वह निराकार साकार रहा ।

उसका वर्णन हो सके नहीं, वह रहा वर्णनातीत अगम,

वह कुछ भी करता नहीं रहा पर सब कुछ कर सकने सक्षम ।

 

वह चल सकता बिन पैरों के, वह बिन हाथों के कार्य करे,

सब कुछ देखे बिन आँखों के, बिन कानों के सब श्रवण करे।

हर भाँति रसों को वह भोगे, बिन रसना के, पर बैरागी,

वाणी बिन जो वाचाल रहा जो, निर्विकार फिर भी त्यागी।

 

वह निराकार ही रूप धरे, वह अचल करे जग में विचरण,

यदि विश्व चेतना रही हवा, तो समझो उसको नील गगन ।

सब कृपा अहेतुक उसकी है, संहार सृजन उसकी इच्छा,

वह रहा अकर्ता पर फिर भी जग-जीवन क्रम उससे चलता।

 

पाकर उसका संकेत धरा, यह धृति को धारण करती है,

बहती है नदी समुद्र ओर, ऊपर को अग्नि उभरती है ।

सारा आकाश खंगाल रही होती है हवा उसे पाने,

उत्सुक रहता आकाश, जहाँ तू, उसमें तुरत सभा जाने ।

 

हो जाती जिस पर कृपा, पंगु वह चढ जाता पहाड़ सीधा,

पा जाता मुक्ति बन्धनों से, संसार कर्म का जन बींधा ।

वह अशरण की बन रहे शरण, वह नित्य रहा, वह अविनाशी,

वह चरम परम वह अचल अटल, वह चेतन घट घट का वासी ।

 

वह माया रहित विमुक्त रहा, वह परे विश्व की रचना के,

उसने माया को रचा और हो गया अलग माया रच के ।

आनन्द उसी का रहा, उसी का ज्ञान रहा संकल्प रहा,

उससे ही जो हो रहा विलीन, वह कारण कार्य समग्र रहा ।

 

उसके अतिरिक्त न कुछ रहता, आनन्द रहे, आनन्द मात्र,

सत्ता अभिन्न विभु से होती जो शान्ति रूप परब्रह्म ग्रात्र ।

सत्ता में ब्रह्म समाया है साधक करता उसका दर्शन,

सुख शान्ति परम केवल रहती जिसमें विलीन साधक का मन । क्रमशः…