‘गीता ज्ञान प्रभा’ धारावाहिक .. 12

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलियाजी द्वारा रचित ‘गीता ज्ञान प्रभा’ 

ग्रंथ एक अमूल्य ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा ज्ञानेश्वरीजी महाराज रचित ज्ञानेश्वरी गीता का भावानुवाद किया है, श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को गीता ज्ञान प्रभा में 2868 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है।

उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला‘गीता ज्ञान प्रभा ‘ धारावाहिक की 12 कड़ी ..

श्रीमद भागवतगीता भगवान कृष्ण का मुख की वाणी है तथा इसमें उपनिषदों का सार संग्रहित है । श्रीमदभगवदगीता को स्वयं उपनिषद माना गया है,परमात्मा के परम तत्व का साक्षात्कार कराने वाली यह ब्रह्मविद्या है, भगवान कृष्ण अपने सखा अर्जुन को कर्मयोग की शिक्षा देते हैं |

पहिले अध्याय के अन्त में अर्जन विषाद ग्रस्त होकर तथा गाण्डीव धनुष उतार कर स्वजनों से युद्ध न करने का निश्चय कर रख रथ के पिछले हिस्से में जाकर बैठ जाता है, उसके मोहग्रसित मन को मोह से मुक्त कराने तथा विषाद को दूर करने भगवान कृष्ण उसके प्रति उद्बोधन करते है पहिले वे उसे उसकी कायरता पर झिड़कते हैं फिर समझाते हैं।

दूसरे अध्याय के प्रारंभ में अर्जुन भगवान कृष्ण से अपनी मनःस्थि प्रगट करता है, और अन्त में पूछता है कि भगवान मेरी बुद्धि काम नहीं कर रही है, मेरे लिए कल्याणकारी मार्ग का निर्देश करिये, मैं आपकी शरण में हूं, मुझे भ्रम से उबारिए,तब भगवान कृष्ण अर्जुन के सन्देहों का समाधान करते हैं। वे सांख्य के सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं, और योग का अभ्यास करने को कहते हैं, यह ज्ञानयोग हैं, जो कर्मयोग को बढ़ावा देता है। आत्मा और शरीर के विभेद का निरुपण करते हुए, भगवान कृष्ण किसी के भी लिए शोक न करने की बात कहते हैं, जिसका नाश नहीं होता, उसके लिए शोक करना उचित नहीं है, जो नाशवान है उसके लिए भी शोक करना उचित नहीं है, परिणाम की चिन्ता किए बिना कर्म करना चाहिए, कर्म का फल भगवान के हाथ में हैं, इसलिए फल की आशा से किया गया कार्य दुख उत्पन्न करता है।

मनुष्य को योग की अन्तर्दष्टि प्राप्त करके निष्काम भाव से अपने कर्तव्य कर्म का निष्पादन पूर्ण लगन एवं तत्परता से करना चाहिए। यह संदेश, इस अध्याय में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिया है। इस अध्याय का नाम सांख्य योग है, इसमें योग के अभ्यास के साथ सांख्य सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ है।

     द्वितीयोऽध्यायः – ‘सांख्य-योग’

 ‘सांख्य सिद्धान्त और योग का अभ्यास’

श्लोक (१) 

संजय उवाच :-

संजय ने कहा सुनो राजन, अर्जुन विषाद में डूब गया,

स्वजनों के प्रति मन में उसके जागा कुछ ऐसा मोह नया ।

अन्तस हो गया द्रवित उसका जिस तरह नमक घुलता जल में,

धीरज उसका उड़ गया कहीं, उड़ जाता ज्यों बादल नभ में ।

 

कीचड़ में फँसकर राजहंस ज्यों मलिन दिखाई देता है,

ममता से व्याकुल अर्जुन का मुख विकल दिखाई देता है ।

अन्तस में उमड़ रही करुणा, नेत्रों में छाई व्याकुलता,

अर्जुन की आँखों से बहते आँसू का वेग नहीं थमता ।

 

व्यामोह ग्रसित अर्जुन को लख बोले मधुसूदन हे राजन,

इस तरह विकल होना तुमको क्या शोभा देता है अर्जुन ?

श्लोक (२) 

सबसे पहिली यह बात कि तुम हो कौन विचार करो इसका ?

यह क्या जो तुम कर रहे, रहा क्या भान सही तुमको इसका ?

क्या रही कमी तुममें जो तुमको यों कमजोर बनाती है ?

क्या करना शेष रहा तुमको, दुख बात कौन पहुंचाती है ?

 

अनुचित बातों की ओर कभी तुम ध्यान नहीं देते थे यों ?

धीरज खोते थे नहीं, आज इतने अधीर हो आये क्यों ?

असफलता कोसों दूर भाग जाती है नाम तुम्हारा सुन

तुम रहे वीरता की निधि, क्षत्रिय वीरों के किरीट हो तुम।

 

हे पार्थ वीरता का तेरी, बजता है डंका त्रिभुवन में,

साक्षात हुए शंकर परास्त, तुझसे जो उतरे थे रन में ।

जो साढ़े तीन करोड रहे, वे दैत्य निवात-कवच जैसे,

निर्मूल हुए लड़कर तुमसे, जीते न युद्ध कैसे कैसे?

 

गन्धर्व परास्त हुए तुमसे, गाते हैं कीर्ति गान तेरा,

तुम अतुलनीय हो सच अर्जुन त्रिभुवन का है छोटा घेरा ।

इस तरह पराक्रम उच्च्कोटि का रहा तुम्हारा पार्थ सदा,

फिर आज हुआ क्या तुमको जो है आँखों से यह अश्रु बहा ?

 

वीरों की अपनी वृति छोड़ सिर झुका खड़े हो यों उदास ?

अर्जुन तुम रहे विचारवान पर करुणा के वश हो हताश ।

तुम बने हुए हो दीन मगर क्या रवि को तिमिर निगल पाया ?

या अमृत की हो गई मृत्यु, या वारि नमक से गल पाया ?

 

या लकड़ी अग्नि निगल पाई, या कालकूट विष डसा गया ?

या देखा क्या तुमने भुजंग को, कोई मेंढक निगल गया ?

या गीदड़ लड़ा सिंह से, हो क्या ऐसा लेखा मिलता है ?

बातें ये सभी विलक्षण सी, सच हुई आज यों लगता है।

 

इसलिए सुनो अर्जुन तुम, अपने पास मोह मत आने दो,

मन को संभाल लो, धीरज से, उसको न बहक यों जाने दो ।

यह पागलपन है तजो इसे, तुम उठो, उठाओ धनुष-वाण,

रणभूमि, यहाँ करुणा का आखिर तुम्हीं बताओ कौन काम ?

 

अर्जुन तुम तो हो ज्ञानवान, फिर क्योंकर नहीं विचार रहे ?

क्या दया युद्ध के समय उचित,क्यों भावकुता में व्यर्थ बहे ?

व्यवहार तुम्हारा यह अर्जुन, अर्जित सुकीर्ति पर बट्टा है ,

अपयश का कारण बनता है, इससे परमार्थ बिगड़ता है ।

 

इस असमय में यह मोह तुझे, उत्पन्न हुआ क्योंकर अर्जुन,

यह कायरता का समय नहीं, यह नहीं विषाद का है कारण ।

यह कातर भाव न श्रेष्ठ पुरुष को कोई मान दिलाता है,

यह अर्थ, धर्म, सुख, भोग, मोक्ष से वंचित उसे बनाता है।

 

किस कारण तुझको मोह हुआ, ऐसे असमय में यह अर्जुन,

आचार नहीं यह पुरुषोचित, शोकाकुल मन, करुणार्द्र नयन ।

आर्योचित तेरा कार्य नहीं जो करे स्वर्ग का अधिकारी,

उपयुक्त न यह व्यवहार रहा, इससे न कीर्ति मिलने वाली ।  (३) क्रमश ….