श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 120 वी कड़ी.. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 120 वी कड़ी.. 

सोलहवाँ अध्याय ..देवासुर-सम्पत्ति-विभाग योग (देवी और असुरी स्वभाव)

श्री भगवानुवाच :-

वे विषय भोग में लिप्त रहे, इच्छाओं का विस्तार रहा,

अनुरक्ति कामिनी-कांचन में, शुचिता का पूर्ण अभाव रहा।

मदिरापायी वे दर्प जनित, मिथ्याभिमान में चूर रहे,

दूषित कर्मों को करने वे, मन वाणी से मजबूर रहे।-10

 

वे मान रहे जीवन उनको, सुख भोग तृप्ति के लिये बना,

वे चाह रहे अन्तिम क्षण तक, अपनी इन्द्रियाँ तृप्त करना।

विस्तार रहा चिन्ताओं का, भोगाग्नि न होती शान्त कभी,

अतृप्त वासना चिन्ता में, जलते रहते वे असुर सभी।-11

 

आशायें लेकर वे हजार, बन्धन पर बन्धन बाँध रहे,

वे काम क्रोध में मते हुये, सीमायें सारी लाँध रहे।

धन संचय करने भोग हेतु, करते अन्याय बहुत कामी,

परिणाम न देख सकें अपना वे स्वेच्छाचारी अभिमानी।-12

 

आसुरी प्रकति वाले निशिदिन, रे दिवास्वप्न देखा करते,

अज्ञान जनित वे आत्ममुग्ध, सम्मोहित अपने से रहते।

धन आज प्राप्त पर्याप्त किया, कल इसको और बढ़ाऊँगा,

हो गया मनोरथ आज पूर्ण, दुगुना तिगुना कर लाऊँगा।-13

 

वह मारा गया शत्रु मेरा, अन्यान्य उन्हें भी मारूँगा,

मैं ही हूँ रे जग का ईश्वर, होगा जैसा मैं चाहूँगा।

मैं माँग रहा ये सभी भोग, मैं भोक्ता हूँ मैं सिद्ध पुरुष,

बलवान अकेला मैं ही हूँ, मुझ जैसा सुखी न अन्य पुरुष।-14    क्रमशः….