श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 109 वी कड़ी.. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 109 वी कड़ी.. 

चौदहवाँ अध्याय गुणत्रय-विभाग योग (त्रिगुणमयी माया)

श्री भगवानुवाच :-

भगवान कृष्ण बोले अर्जुन, अब परम ज्ञान कहता तुझसे

यह ज्ञान रहा उनसे उत्तम, जो सुनते आया तू मुझसे।

वह ज्ञान जानकार सब मुनिगण, संसिद्धि परम पा जाते हैं,

बैकुण्ठ जगत में कर प्रवेश, वे सब कृतार्थ हो जाते हैं।-1

 

पा जाता है जो पूर्ण ज्ञान, वह पाता दिव्य प्रकृति मेरी,

हो जाता मुक्त बन्धनों से, पाता समानता वह मेरी।

वह निष्ठ ज्ञान में जन्म नहीं लेता आता जब सृष्टिकाल,

व्याकुल वह होता नहीं तनिक, जब घिर जाता है प्रलयकाल।-2

 

कहते हैं जिसको महदब्रह्मा यह मेरी मूल प्रकृति अर्जुन,

यह योनि समस्त प्राणियों की जो करती रहे गर्भ धारण।

इसमें मैं गर्भाधान करूँ, ब्रहाण्डों का होता प्रजनन,

उत्पत्ति प्राणियों की होती, संयोग करे जब जड़ चेतन।-3

 

हे अर्जुन विविध योनियों, में जो भी प्राणी उत्पन्न हुए,

उन सबकी माता प्रकृति रही, वे महदतत्व से ही जन्मे।

अपरा, अरूँ परा प्रकृति मेरी, वह रही जगत जननी माता।

मैं रहा बीज गर्भाधानी इसलिये रहा मैं परम पिता।-4

जीवात्मा रहता निर्विकार, वह दिव्य रूप होता अर्जुन,

पर प्राकृत जग में बद्ध उसे, भावित करते रहते त्रिगुण।

सत रज तम तीन प्रकृति के गुण, तन से बाँधे जीवात्मा को,

रहते हैं जैसे पूर्व-कर्म, सुख-दुख के भोग मिले उसको।-5   क्रमशः….