
ग्यारहवां अध्याय : विश्वरूप-दर्शन योग (श्री भगवान का विश्वरूप)
हे विश्वमूर्ति मैं आतुर हूँ, वह पूर्णरूप कर लें धारण,
नारायण रूप चतुर्भुज प्रभु, पा सके शान्ति व्याकुल यह मन।
सिर पर मणियों का हो किरीट, हाथों में शंख, गदा भगवन,
हो चक्र सुदर्शन चन्द्रदेव, हे सहस्त्रबाहु दे वह दर्शन।-46
भगवानुवाच :-
भगवान कृष्ण बोले अर्जुन, मेरा यह तुझे अनुग्रह था,
जो विश्वरूप यह दिखलाया, यह योग शक्ति का विग्रह था।
तुझसे पहिले यह तेजोमय, देखा न किसी ने रूप कभी,
भक्तों के मन की इच्छायें हे पार्थ करू मैं पूर्ण सभी।-47
हे कुरूप्रवीर तुझसे पहिले, देखा न किसी ने विश्वरूप,
केवल तूने इसको देखा, यह अतिशय तेजोमय अनूप।
स्वाध्याय न वेदों का इसका, दर्शन करवा पाये अर्जुन,
यज्ञादि दान तप के विधान, करवा न सके इसके दर्शन।-48
मेरा यह भीषण रूप देख, व्याकुल भयभीत न हो अर्जुन,
तज दे विमूढ़ता भय तज दे, भर प्रीतिभाव से अपना मन।
हे भक्त प्रवर उत्कंठित तू, जो रूप देखना चाह रहा,
ले उसी रूप का दर्शन कर, मैं पूर्व रूप ही धार रहा।-49
संजय उवाच :-
संजय ने कहा कि हे राजन, इस तरह कृष्ण ने समझाया,
फिर विष्णु चतुर्भुज रूप दिव्य, अपना अर्जुन को दिखलाया।
फिर द्विगुण रूप धारण करके, अपने प्रिय को आश्वस्त किया,
अत्यंत मधुर मृदु वाणी से, हे कुरूपति उसे कृतार्थ किया।-50
अर्जुन उवाच :-
अर्जुन को पहिले विष्णु रूप, फिर द्विभुज रूप हरि का दीखा,
चिरपरिचित रूप कान्ति लखकर, खिल गया कमल उसके जी का।
अति विनत भाव बोला अर्जुन, मन अति आनंदित मन इसे देख,
मिल रही चित्त को परम शान्ति, मैं हुआ प्रकृतिगत अरू सचेत ।-51 क्रमशः…