श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 97वी कड़ी..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 97वी कड़ी.. 

ग्यारहवां अध्याय  : विश्वरूप-दर्शन योग (श्री भगवान का विश्वरूप)

हे विश्वमूर्ति मैं आतुर हूँ, वह पूर्णरूप कर लें धारण,

नारायण रूप चतुर्भुज प्रभु, पा सके शान्ति व्याकुल यह मन।

सिर पर मणियों का हो किरीट, हाथों में शंख, गदा भगवन,

हो चक्र सुदर्शन चन्द्रदेव, हे सहस्त्रबाहु दे वह दर्शन।-46

भगवानुवाच :-

भगवान कृष्ण बोले अर्जुन, मेरा यह तुझे अनुग्रह था,

जो विश्वरूप यह दिखलाया, यह योग शक्ति का विग्रह था।

तुझसे पहिले यह तेजोमय, देखा न किसी ने रूप कभी,

भक्तों के मन की इच्छायें हे पार्थ करू मैं पूर्ण सभी।-47

 

हे कुरूप्रवीर तुझसे पहिले, देखा न किसी ने विश्वरूप,

केवल तूने इसको देखा, यह अतिशय तेजोमय अनूप।

स्वाध्याय न वेदों का इसका, दर्शन करवा पाये अर्जुन,

यज्ञादि दान तप के विधान, करवा न सके इसके दर्शन।-48

 

मेरा यह भीषण रूप देख, व्याकुल भयभीत न हो अर्जुन,

तज दे विमूढ़ता भय तज दे, भर प्रीतिभाव से अपना मन।

हे भक्त प्रवर उत्कंठित तू, जो रूप देखना चाह रहा,

ले उसी रूप का दर्शन कर, मैं पूर्व रूप ही धार रहा।-49

संजय उवाच :-

संजय ने कहा कि हे राजन, इस तरह कृष्ण ने समझाया,

फिर विष्णु चतुर्भुज रूप दिव्य, अपना अर्जुन को दिखलाया।

फिर द्विगुण रूप धारण करके, अपने प्रिय को आश्वस्त किया,

अत्यंत मधुर मृदु वाणी से, हे कुरूपति उसे कृतार्थ किया।-50

अर्जुन उवाच :-

अर्जुन को पहिले विष्णु रूप, फिर द्विभुज रूप हरि का दीखा,

चिरपरिचित रूप कान्ति लखकर, खिल गया कमल उसके जी का।

अति विनत भाव बोला अर्जुन, मन अति आनंदित मन इसे देख,

मिल रही चित्त को परम शान्ति, मैं हुआ प्रकृतिगत अरू सचेत ।-51    क्रमशः…