श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 93वी कड़ी.. 

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 93वी कड़ी.. 

ग्यारहवां अध्याय  : विश्वरूप-दर्शन योग (श्री भगवान का विश्वरूप)

 

हे महाबाहु विकराल रूप, मन में भय का संचार करे,

बहुमुख, बहुपग, बहुनेत्र, भुजा, जो देखे विस्मय वही करे।

जंघाएँ बहु, बहु उदर युक्त, जबडे विकराल करे व्याकुल,

सुरगण व्याकुल सब लोक विकल, मैं भी हो रहा प्रभो व्याकुल।-23

 

हे विष्णों, प्रभु सर्वान्तशेष देदीप्यमान विग्रह भगवन,

नाना रूपों से युक्त रहा, भू से उठकर छू रहा गगन।

तेजोमय मुख को फैलाये, दमकाता नेत्रों को विशाल,

भयभीत हृदय मैं धैर्यहीन, खो रहा शान्ति हे महाकाल।-24

देवाधिदेव आश्रय जग के, हर मुख में ज्यों प्रज्जवलित आग,

धधका करती ज्यों अन्तहीन, आया करता जब प्रलयकाल।

देखे मैंने विकराल दन्त, सुख को न प्राप्त मैं हूँ भगवन।

कर रही दिशायें सभी विकल, मुझ पर प्रसन्न हों, हे भगवन।-25

 

मुख विविध रहे देदीप्यमान, जिनके दिखते विकराल दन्त,

मैं देख रहा हूँ करूणाकर, धृतराष्ट्र सुतों का करूण अन्त।

धृतराष्ट्र पुत्र सब राजागण, कौरव दल सारा शत्रु पक्ष,

प्रभु भीष्म, द्रोण, अठ कर्ण सभी, इस काल रूप के बने भक्ष्य।-26

 

योद्धागण देव हमारे भी, बढ़ रहे वगेपूर्वक मुख में,

वे नहीं दीखते कहाँ गये, जो समा गये जाकर मुख में।

कुछ सीधे मूख में समा रहे, कुछ दाँतों से पीसे जाते।

कुछ शीश चूर्ण के साथ पगे, दाँतों में फँसकर रह जाते।-27

 

सगर की ओर बहा करता, ज्यों जल प्रवाह सरिताओं का,

रोके रूकता नहीं वेग, त्यों जल प्रवाह सरिताओं का।

रण शूरवीर सब उसी भांति, मुख में प्रवेश पाने बढ़ते,

मुख परम प्रज्जवलित रहे प्रभो, जिसमें प्रवेश योद्धा करते।-28   क्रमशः…