
ग्यारहवां अध्याय : विश्वरूप-दर्शन योग (श्री भगवान का विश्वरूप)
हे भारत देख यहाँ मुझमें, सब आदित्यों का वास रहा,
सुत बारह देख अदिति के तू, आठों वसुओं का वास रहा।
ग्यारह रूद्रों को देख पार्थ, बसते मुझमें सब देव देख,
अन्यान्य अनेक विचित्र रूप, देखे न सुने वे सभी देख।-6
तेरे मन में जो इच्छा हो, वह सब तू देखेगा मुझमें,
चाहेगा और देखना जो, तत्क्षण वह दीखेगा मुझमें।
जो कुछ भविष्य के बारे में, तू चाहे देखेगा अर्जुन,
सम्पूर्ण जगत यह जड़ चेतन, हो रहा दृष्टि गोचर अर्जुन।-7
पर अपने चर्म चक्षुओं से, मुझको न देखने पायेगा,
इसलिये दे रहा दिव्य दृष्टि, इससे तू सब लख पायेगा।
मेरा ऐश्वर्य अपार इसे देखेगा दिव्य दृष्टि पाकर,
मेरी जो योगशक्ति उसको, समझेगा दिव्य दृष्टि पाकर।-8
संजय उवाच :-
संजय ने कहा कि हे राजन, अर्जुन को देकर दिव्य दृष्टि,
भगवान कृष्ण ने दिखलाया, वह विश्वरूप उसका अभीष्ठ।
जो दिव्य अलौकिक अगम रहा, एकात्म रूप ऐश्वर्य परम,
सबको न रहा जो दर्शनीय, उसका ही करवाया दर्शन।-9
उस परमदेव परमेश्वर का, अर्जुन ने देखा विश्व रूप,
जिसके आनन थे, अनगिनती, अनगिनती नेत्र विराट रूप।
परिधान विविध अति दिव्य रहे, अति दिव्य देह के आभूषण,
दिव्यास्त्र उठाये हाथों में, विस्तार अमित, अद्भुत दर्शन।-10
मालायें दिव्य किये धारण, उपलिप्त कलेवर सौरभ से,
सब ओर किये वे मुख अपना, दर्शक को अचरज से भरतें कर पग
मुख की न रही सीमा परमोज्जवल व्यापक रूप दिव्य,
भगवन्त कृपा निरवधि जिस पर, वह ही लख पाता रूप दिव्य।-11 क्रमशः…