
ग्यारहवां अध्याय विश्वरूप-दर्शन योग (श्री भगवान का विश्वरूप)
अर्जुन उवाच :-
हे प्रभु यह बड़ा अनुग्रह है, जो मुझको यह उपदेश दिया,
अध्यात्म ज्ञान विज्ञान गूढ, मेरे प्रति इसको प्रगट किया।
प्रभु अमृत वचनों को सुनकर, वाणी को करके हृदयगम,
मिट गया मोह मन का मेरा, हट गया दूर मेरा विभ्रम।-1
हे कमलनयन उद्भव जग का, जग के जीवों का जन्म मरण,
फिर प्रलय सृष्टि का विलय काल, सुन सका आपसे मैं भगवन ।
महिमा अपार प्रभु अविनाशी, विस्तार सहित उसको सुनकर
अनुभूति तत्व की करता मैं भगवन तव शरणागत होकर।-2
हे परमेश्वर, हे पुरुषोत्तम, यद्यपि सम्मुख है आप प्रभो,
फिर भी स्वरूप जो है विराट, मैं लखना चाहूँ उसे विभो।
वह दिव्य रूप कैसा भगवन, जो सकल सृष्टि में व्याप्त रहा,
वह विश्वरूप कैसा भगवन, जो सकल सृष्टि को साध रहा।-3
मेरी यदि विनय उचित समझें, या समझे पात्र मुझे भगवन,
मेरे द्वारा देखा जाना, अनुचित न रहा यदि यह भगवन।
तो योगेश्वर अनुकम्पा कर, उस विश्व रूप को दिखलायें,
उस दिव्य रूप अविनाशी का प्रभु मुझको दर्शन करवायें।-4
श्री भगवानुवाच :-
भगवान कृष्ण बोले अर्जुन, लो विश्वरूप मेरा देखो,
नाना आकृतियों वर्षों में मेरी विभूतियों को देखो।
सागर समान विस्तृत फैली, बिन ओर छोर के अन्तहीन,
दिव्याकृतियाँ सौ सौ हजार, सबको न रही जो दर्शनीय।-5 क्रमशः…