रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।छटवाँ अध्याय : – ध्यान-योग (अभ्यास)
फल की कामना जिसे रही, अरू जो करता कर्तव्य रहा,
हे पार्थ वही सच्चा योगी, सच्चा सन्यासी वही रहा।
वह नहीं कि जिसने अग्नि तजी, या लौकिक कर्मो को त्यागा,
या विमुख हुआ कर्तव्यों से, त्यागी बन निर्जन में भागा।-1
सन्यास जिसे कहते हैं हम, वह योग योग की सिद्धि रही,
“परमतत्व युक्त मन हो जाना”, उसकी इस भाँति प्रसिद्धि रही।
इन्द्रियाँ प्रबल होती, अर्जुन, मन में पैदा करती इच्छा,
भोगेच्छा का बिन त्याग किये, कोई न कभी योगी बनता।-2
अष्टांग योग के साधक के, प्रारंभिक साधन कर्म बने,
कर लिया सिद्ध सोपान चढ़े, तो साधक योगारूढ़ बने।
कर्मों का त्याग हेतु बनता, वे उठते जाते हैं ऊपर,
परमार्थ शुद्ध निःश्रेयस की, अनुभूति प्राप्त करते भूपर।-3
जो विषय वासना को अपनी, सम्पूर्ण रूप से त्याग
चुका मन में न दुबारा फिर उसके इन्द्रिय भोगो का भाव जगा।
कर्मो के फल की इच्छा भी, फिर उसके मन में नहीं उठी,
कहते हैं योगारूढ़ उसे, वह साधक होता सिद्धयती।-4
उद्धार स्वयं करने पाता अपना, अपने ही मन द्वारा,
अपने को दुर्गति में डाले, वह जो रहता मन से हारा।
मन बद्धजीव का मित्र रहा, अनुकुल रहे तो मुक्त करें
वह शत्रु रहा सबसे बढ़कर, जीवों को बन्धन युक्त करे।-5 क्रमशः…