श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 23वी कड़ी..   

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 23वी कड़ी..   
   
दूसरा अध्याय : सांख्य योग                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             निष्काम भावना से भावित, है किया श्रेष्ठ अरूकर्म दिव्य,यह बुद्धियोग साधन ऐसा जो अक्षय है, जो रहा अव्य।

इसमें न कहीं बाधा कोई, जितना प्रयास सब सफल रहे

साधन अत्यल्प सबल ऐसा, भीषणतम भय से मुक्त करें।-40

 

इस पथ पर चलने वालों की, निश्चयात्मक बुद्धि हुआ करती,

होता है उनका लक्ष्य एक, वह बुद्धि नहीं भ्रम में पड़ती।

पर कुरूनन्दन अस्थिर मति के, पुरुषों की बुद्धि भ्रमित रहती,

बँटकर अनेक धाराओं में, उद्देश्यहीन दिशि-दिशि बहती।-41

 

अल्पज्ञ मनुज वेदोक्त वचन, आलंकारिक न समझ पाते,

वे स्वर्ग-सुखों को लालायित, आसक्त भोग में हो जाते।

ऐश्वर्य-भोग से भी बढ़कर, कुछ रहा न, इसको मान रहे,

इन्द्रिय सुख को ही सर्वोपरि, आसक्त सुखों के जान रहे।-42

क्षेपक :-

दिन-दिन दुनी वे बढ़ा चले, ऐश्वर्य भोग की अभिलाषा.

जीवन में रहा श्रेष्ठतर भी, मन विषयी नहीं समझ पाता।

विषमय वृक्षों की सुषुमा पर, आसक्त रहा विषयाकुल मन

विषयों में ही जो लिप्त रहे, बन्धनकारी उनका जीवन।-43    क्रमशः…