श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 40वी कड़ी ..

मध्य प्रदेश के नरसिंगपुर जिले की माटी के मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय डॉक्टर रमेश कुमार बुधौलिया जी द्वारा रचित ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद ,धार्मिक साहित्यिक धरोहर है, जिसमे डॉक्टर साहब द्वारा श्रीमद्भगवतगीता  का भावानुवाद किया है ! श्रीमद्भगवतगीता के 700 संस्कृत श्लोकों को ‘श्रीकृष्णार्जुन संवाद में मात्र 697 विलक्ष्ण छंदों में समेटा गया है। गीता के समस्त अठारह अध्यायों का डॉ. बुधौलिया ने गहन अध्ययन करके जो काव्यात्मक प्रदेय हमें सौंपा है, वह अभूतपूर्व है। इतना प्रभावशाली काव्य-रूप बहुत कम देखने को मिलता है। जिनमें सहज-सरल तरीके से गीताजी को समझाने की सार्थक कोशिश की गई है।
इस दिशा में डॉ. बुधौलिया ने स्तुत्य कार्य किया। गीता का छंदमय हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करके वह हिंदी साहित्य को दरअसल एक धरोहर सौंप गए।
आज वह हमारे बीच डॉ. बुधोलिया सशरीर भले नहीं हैं, लेकिन उनकी यह अमर कृति योगों युगों तक हिंदी साहित्य के पाठकों को अनुप्राणित करती रहेगी ! उन्ही के द्वारा श्रीमद्भगवतगीता महाकाव्य की छंदोंमयी श्रंखला श्रीकृष्णार्जुन संवाद धारावाहिक की 40वी कड़ी..                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                           चौथा अध्याय  :- ज्ञान-कर्म-सन्यास योग                                                                                                                                             
श्री भगवानुवाच :-

मधुसूदन बोले हे अर्जुन कितने ही जन्म लिये मैने,

कितने ही तुमने जन्म लिये, मुझको सुधि है सब जन्मों की, लेकिन अर्जुन तुम भूल गये।

क्षेपक :-

दोनों का नित्य स्वरूप मगर, मुझमें तुझमे अन्तर इतना,

मैं परममुक्त तू जीवमुक्त, मैं अच्युत हूँ, तू जीवात्मा।-5

मैं रहा अजन्मा अविनाशी, सच्चिदानंदमय आप्त रहा,

ईश्वर मैं रहा प्राणियों का, मैं आत्मलीन अवतार रहा।

मैं आद्य चिरन्तन चिन्मय हूँ, युग-युग में होता अवतारी,

है शक्ति अभ्यान्तरित मेरी रूपों में जो बिखरी सारी।

क्षेपक

प्राकृत जग में अवतरित हुआ, परिवर्तन रहित सदा रहता,

धारण कर दिव्य देह घी में, अक्षय अविकारी ही रहता।

अवतरण कि मेरा तिरोभाव है, उदय अस्त होता रवि का,

जब अलख दृष्टि से हुआ अस्त, गोचर तो सूर्योदय बनता।

 

लगता ज्यों मैंने जन्म लिया, लेकिन मैं था मैं रहा रहूँ।

माया से कभी न दूषित मैं देहान्तर करूँ न, नित्य रहूँ

मैं अटय नित्य अभेद पूर्ण, गुण और देह में भेंद नहीं ।

अनुकम्पा निरूपाधिक मेरी, अवतरण हेतु सर्वत्र वही।-6

 

जिस देशकाल में हे अर्जुन, नित हानि धर्म की होती हो,

बढ़ता जाता हो अद्य अधर्म, दुःख भार धरि भी होती हो।

होता हो मूल्यों का विघटन, दिन दूना दुराचार बढ़ता,

मर्यादायें टूटा करती, तब मैं अवतार लिया करता।-7  क्रमशः…